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________________ ५९४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे यातेन-प्रस्तापात् समुद्रपयनेन उद्भतम्-उत्क्षिप्तं शोभमानं कौशेयं-यस्त्रविशेषो यस्य स तथा, चित्रेण धनुर्वरेणं शोभते 'स भरतः' इन्द्र इव प्रत्यक्षम् साक्षात् तत्प्रागुक्त स्वरूपं महोचापं चश्चलायमानं सौदामिनीयमानम्, आरोपित गुणत्वेन पञ्चमीचन्द्रोपमम्, पञ्चमीचन्द्र उपमा यत्र तम् 'छज्जई' राजते प्रकाशते, कुत्र इत्याह -याम हस्ते नरपते श्चक्रिणो भरतस्य तस्मिन् विनये मागधतीर्थेश साधनरूप । 'तए णं से सरे भरहेणं रण्णा णिसिटे समाणे खिप्पामेव दुवाळसजोयणाई गंता गहतित्थाहिवइस्स देवस्स भवणंसि निवइए' ततः खलु स शरो भरतेन राज्ञा निसृष्टः सन् क्षिप्रमेव द्वादशयोजनानि गत्या मागधतीयोधिपतेः देवस्य भवने निपतितः 'तए णं से मागहतित्थाहिबई देवे भवणंसि सरं णिवइयं पासइ' ततः खलु स मागधतीर्थाधिपतिः देवो भवने स्वकीय स्थाने शरं निपतितं पश्यति 'पासित्ता' दृष्ट्वा आसुरत्ते' आशु शीघ्रं रक्तः क्रोधोदयाद स्फुरितकोपानल: 'रुटे चंडिक्किए' रुष्टः- उदितक्रोधः चाण्डिभी अपनी धोती को कांछ को बांध लिया था इससे उसके शरीर का मध्य भाग कटि भाग सुहढ बन्धन से बद्ध हो जाने के कारण बहुत मजबूत हो गया था अथवा - युद्धोचित वस्त्र बन्धन विशेष से उसका मध्यभाग कटिभाग बंधा हुआ था इसने जो कौशेय या विशेष पहिर रक्खा था यह समुद्र के पवन से धीरे२ उस समय हिल रहा था अतः याम हाथ में धनुष लिये हुए वह भरत राजा प्रत्यक्ष इन्द्र के जैसा प्रतीत हो रहा था। तथा वाम हाथ में जो पूर्वोक्तरूप से वर्णित धनुष था यह विजली की तरह चमक रहा था- एवं शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि के चन्द्र जैसा प्रतीत हो रहा था. (तएणं से सरे भरहेण रण्णा णिसिटे समाणे सिप्पामेव दुवालसजोयणाई गंता भोगहतित्थाहिवइस्स देवस्स भवणंसि नियइए ) जब भरत राजा ने वह बाण छोड़ा तो छूटते ही १२ योजन तक जाकर मागधतोर्थ के अधिपति देव के भवन में पड़ा । (तएणं से मागहतित्थाहिवई भवणंसि सरं निवइयं पासइ) उस मागधतीर्थाधिपति देव ने ज्योंही अपने भवन में गिरेहुरु बाण को देखा तो ( दृष्ट्वा )देखकर ( आसुरत्ते रुठे चंडक्किए कुविए मिसमिसेमाणेति) वह क्रोध से ની ધોતીની કાંછને બાંધી લીધી. એથી તેના શરીરને મધ્યભાગ એટલે કે કટિભાગ સુદઢ બન્યનથી આબદ્ધ થઈ જવા બદલ બહુજ મજબૂત થઈ ગયે અથવા યુદ્ધોચિત વસ્ત્ર અન્યન વિશેષથી તેને મધ્યભાગ કટિભાગ આબદ્ધ હતો. એણે જે કૌશેય વસા વિશેષ ધારણ કરેલું હતું, તે સમુદ્રના પવનથી ધીમે-ધીમે તે વખતે હાલી રહ્યું હતું એથી ડાબા હાથમાં ધનુષ ધારણ કરેલ તે ભરત રાજા પ્રત્યક્ષ ઈન્દ્ર જેવો લાગતું હતું. તથા વામ હસ્તમાં જે પૂર્વોક્ત રૂપમાં વર્ણિત ધનુષ હતું તે વિદ્યુત ની જેમ ચમકી રહ્યું હતું તેમજ शुलपक्षनी ५यभी तिथिना यन्तु स्तु, (तएणं से सरे भरहेण रण्णा णिसिट्टे समाणे खिप्पामेव दुवालसजोयणाई गंता मागहतित्थाहियइस्स देवस्स भवणंसि नियइए) न्यारे १२ मे मा छ।उयुत तार १२ या सुधी ४४२ भाशय तार्थना अधिपति ॥ मनमा ५.यु. (तएणं से मागहतित्थाहिवई भवणसि सरं निवइयं पासइ) भामतीयधिपति व प्यारे पोताना लपनमा ५डेगुं मानता જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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