SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 607
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका तृ. वक्षस्कारः सू० ६ स्नानादिनिव्रत्यनन्तरोय भरतकार्यनिरूपणम् ५९५ क्यितः-सञ्जातचाण्डिक्यः अतिक्रोधयुक्त इत्यथः, 'कुविए' कुपितः-प्रवृद्ध क्रोधोदयः 'मिसिमिसेमाणे ति' कोपाग्निना दीप्यमान इव दन्तरोष्ठ दशन् मिसमिसशब्द कुर्वाण इत्यर्थः 'तिवलियं भिउडि णिडाले साहरई' त्रिवलिकां तिस्रो वलयः प्रकृष्ट कोषोदितललाटरेखा रूपा यस्यां सा तथा तां तथाविधां भृकुटि संहरति निवेशयति आकर्षयतीत्यर्थः 'संहरित्ता' संहत्य ‘एवं क्यासी' एवमवादीत उक्तवान् 'केस ' इत्यादि 'केस गं' भो एस अपत्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे होणपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जेणं मम इमाए एयाणुरुवाए दिव्वाए देविड्ढीए दिव्वाए देवजुईए दिव्वेणं दिव्वाणुभावेणं लद्धाए पत्ताए अभिसमण्णागयाए उपि अपुस्सुए भवणंसि सरं णिसिरइत्ति कट्टु सीहासणाओ अब्भुढेइ' कः खलु भो एष: अप्रार्थितप्रार्थकः दुरन्तप्रान्तलक्षणः हीनपुण्णचातुर्दशः ही श्री परिवजितः यः खलु मम अस्या एतद्रपाया: दिव्यायाः देवमृद्धचा दिव्याया देवद्यते दिव्येन देवानुभावेन लब्धायाः प्राप्ताया अभिसमन्वागताया उपरि आत्मना उत्सुकः भवने शरं निसृजतीति कृत्वा रक्त-आग-बबूला हो गया-क्रोध के उदय से जग गई है क्रोध रूपी अग्नि जिसकी ऐसा बन गया-जिसने यह वाण फेंका है उसके ऊपर व गुस्सेमें भर गया -अत एव उसके रूपमें रौद्रभाव झलकने लग गया और उदित क्रोध के वशवर्ती होकर वह दांतों से अपने होठों को डसता हुआ मिसमिसाने लग गया (तिवलियं भिउडिं णिडाले साहरइ ) उसी समय उसकी भ्रकुटि त्रिवाल युक्त होकर ललाट पर चढ गई - टेडी हो गई ( संहरित्ता एवं वयासो) भृकुटि ललाट पर चढाकर वह फिर ऐसा सोचने लगा (केसणं भो एस अपत्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुण्ण चाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जेणं मम इमाए एयाणुरूवाए दिवाए देविद्धोए दिव्वाए देवजुईए दिव्वेणं देवाणुभावेणं लद्वाए पत्ताए अभिसमण्णागयाए उपि अप्पुस्सुए भवणंसि सरंणिसिरइत्ति कटु सीहासणाओ अब्भुदेइ) अरे ! ऐसा यह- कौन अप्रार्थित प्रार्थी-मरण का अभिलाषा हुआ है - अर्थात् ऐसा कौन है जो मेरे साथ युद्ध का अभिलाषी होकर अपनी अकाल (Eष्टवा)नेछन (आसुरत्तेरुठे चंडक्किए कुविए मिसमिसे माणेति) ओयथा २४० गया. કોષના ઉદયથી કોષ રૂપી અગ્નિ જેમાં પ્રકટ થયા છે. એવે તે થઈ ગયો. જેણે આ બાણ કર્યું તેની ઉપર તે ક્રોધાવિષ્ટ થઈ ગયો. એથી તેના રૂપમાં રૌદ્રભાવ ઝળકવા લાગ્યા અને धशत ४ तपासावाये। भने । १२७ ताभ्यो (तिवलियं भिउर्डि णिडाले साहर) मत तन मटि त्रिपाल युक्त ई ई ससाट ५२ २ढी आई (सहरित्ता एवं पयासी) टिसाट ५२ २ढावान तो 241 प्रमाणे (क्यार थे. (केस णे भो एस अपस्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुण्णचाउइसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जेणं मम इमाए एयाणुरुवाए दिव्याए देविद्धीए दिव्वाए देवजुईए दिवेणं देवाणुभावेणं लद्धाए पत्ताए अभिसमण्णागयाए उप्पिं अपुस्सुए भवणंसि सरं णिसिरइत्ति कटु सीहासणाओ अन्भुढेइ) अरे ! १ ममाथित प्राथा - મરણાભિલાષી થયા છે. એટલે કે એ કોણ છે કે જે મારી સાથે યુદ્ધ કરવા તૈયાર થયે જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy