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________________ प्रकाशिका टीका ४० वक्षस्कार सू. ३ भरतराज्ञः दिग्विजयादिनिरूपणम् प्रकारेण उक्तवान् , किं तदित्याह-'एवं खलु देवाणुप्पियाण आउहघरसालार दिवे चक्करयणे समुप्पण्णे ते एयण्णं देवाणुप्पियाणं पियट्टयाए पियं णिवेएमो पियं भे भवउ' एवं खलु इत्थमेव यदुच्यते मया तद् सर्वथा सत्यमेव यद्देवानुप्रियाणाम् आयुधगृहशालायां शस्त्रागारशालायां चक्ररत्न समुत्पन्नं तदेतत् खलु देवानुप्रियाणां प्रियार्थतायै-प्रीत्यर्थ प्रियम् इष्टं निवेदयामः एतत् प्रियनिवेदनं प्रियम् 'भे' भवतां भवतु . ततो भरतः कि कृतवान् इत्याह-'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से भरहे राया तस्स आउहघरिअस्स अंतिए एयम8 सोच्चा णिसम्म हट्ठ जाव सोमणस्सिए' ततः खलु स भरतो राजा तस्य आयुधगृहीकस्य अन्तिके एतमथै श्रुत्वा निशम्य हष्ट यावत् सौमनस्यित,तत आयुधहिकस्य आयुधशालारक्षकस्य अन्तिके समीपे एतं चक्ररत्नोत्पत्तिरूपम् अर्थ श्रुत्वा निशम्य हद्यवधार्य इष्ट यावत्सोमनस्थितः, अत्र यावत्पदात् पूर्ववद् बोध्यम् । तथा-'विअसियवरकमलणयणवयणे' विकसितवरकमलनयनवदनः तत्र-विकसिते वरकमलवन्नयनवदने यस्य स तथा-प्रफुएणं वद्धावेइ) उसने पूर्वोक्तानुसार भरत राजा को प्रणाम किया और आपकी जय हो आपकी विजय हो इस प्रकार जय विजय के शब्दों को उच्चारण करते हुए उसने उन्हें बधाइ दी ( वद्धावित्ता एवं वयासी ) बधाई देकर के फिर उसने ऐसा कहा( एवं खलु देवाणुप्पियाणं आउहधरसालाए दिवे चक्करयणे समुप्पण्णे ) हे देवानुप्रिय ! आपकी आयुधशाला में आज दिव्यचक्ररत्न उत्पन्न हुआ है ( तं एअण्ण देवाणुप्पियाणं पियदयाए पिअं णिवेएमो ) तो हे देवानुप्रिय ! मैं आप की प्रीति के लिये आया है (पि भे भवउ तएणं से भरहे राया तस्स आउहधरिअस अतिए एअमट्ठ सोच्चा णिसम्म हद जाव सोमणस्सिए ) यह मेरे द्वारा निवेदित हुआ अर्थ आपको प्रिय हो इस प्रकार उस आयुधशाला के मनुष्य से सुनकर के और उसे हृदय में धारण करके वह भरत राजा हष्ट यावत् सौमतस्थित हुआ यहां पर भी यावत्पद से पूर्वोक्त पाठ गृहीत हुआ है । (वियसियवरकमलणयणवयणे पयलिअवरकडगतुडिअकेऊर मउड कुंडल हारविरायंतरइवच्छे पालवपलंबमाण घोलंत भूषण घरे) उसके सुन्दर दोनो नेत्र और मुख श्रेष्ठ कमल के जैसे विकसित हो गये, चक्ररत्न की उत्पत्ति के श्रवण से जनित ઉપસ્થાન શાળા હતી (બહાર કચેહરી હતી અને તેમાં જ્યાં ભરત રાજા બેઠા હતા ત્યાં गया. (उवागच्छित्ता) त्यो ७२ (करयल जाव जपणं विजएणं बद्धावेइ) तो पिताનુસાર ભરત રાજાને પ્રણામ કર્યા અને તમારે જય થાએ, તમારો જય થાઓ, આ પ્રમાણે नय-विय । २यरत तो भने धामी भाची. (वद्धमवित्ता एवं वयासी) वधामा मापात ५७ तो यु (एवं स्खलु देवाणुपियाणं आउहघरसालाए दिवे चक्करयणे समुप्पपणे) ३ पानुप्रिय! तमारी आयुधशालामा सारे हिव्य यन पन्न यय' छ. (तं एअण्णं देवाणुपियाणं पियठ्याए पिअणिवेएमो) हे देवानुप्रिय! भारी पासेट अथ व निवहन ४२१८ मा०21 छु. (पि मे भवउ तए णं से भरहेराया तस्स आउहघरोअस्स अंतिए एभमहुँ सोच्चा णिसम्म ह8 जाव सोमणस्सिए) भा। જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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