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________________ प्रकाशिका टीका तृ० वक्षस्कार सू. ३ भरतराज्ञः दिग्विजयादिनिरूपणम् ५३१ दृष्ट' मिति विस्मितं तुष्टं 'सुष्ठु जातं यन्मयैव प्रथममिदमपूर्वं दृष्टं यन्निवेदनेन स्वप्रभुर्मा प्रीतिपात्रं करिष्यतो 'ति सन्तोषमापन्नं यत्र तद् यथास्यात्तथा आनन्दितः प्रमोद प्रकर्षतां प्राप्त इत्यर्थः 'नंदिए' नन्दितः मुखप्रसन्नतादिभावैः समृद्धिमुपगतः 'पीइमणे' प्रीतिमनाः प्रीतिः मनसि यस्य स तथा 'परमसोमण स्सिए' परम सौमनस्थितः परमं सौमनस्यं सुमनस्कत्वं जातमस्येति परमसौमनस्थितः, एतदेव व्यनक्ति 'हरिसवसविस हृदयः, हर्षवशेन विसर्पद् उल्लसद् ह्रदयं यस्य स तथा एतादृशः आयुधशालारक्षकः 'जेणामेव दिव्वे चक्करयणे तेणामेव उवागच्छइ' यत्रैव दिव्यं चक्ररत्नं तत्रैवोपागच्छति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेइ' त्रिःकृत्वः - त्रीन् वारान् आदक्षिणप्रदक्षिणं दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणं करोति, 'करेत्ता' कृत्वा च ' करयल जाव - स्सिए हरिसवसविसयमाणहिअए जेणामेव दिव्वे चक्करयणे तेणामेव उवागच्छइ ) हृष्ट तुष्टअत्यन्त तुष्ट हुआ और चित्त में आनन्दित हुआ यहां प्राकृत होने के कारण मकार लाक्षणिक है अथवा वह हृष्ट तुष्ट हुआ इसका तात्पर्य ऐसा भी होता है कि वह बहुत अधिक तुष्ट हुआ और यह मैंने अपूर्व ही वस्तु देखो है इस ख्याल से विस्मित भी हुआ तथा बहुत अच्छा हुआ जो मुझे ही इस अपूर्व वस्तु के सर्व प्रथम दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है अबतो मैं इस बात को स्वबर अपने स्वामी के निकट भेजूंगा - और उनका प्रीतिपात्र बनने का सौभाग्य प्राप्त करूँगाइस प्रकार के विचार से वह संतुष्ट हुआ और आनन्द युक्त हुआ तथा नंदित हुआ मुख प्रसन्नता आदि भावों से वह समृद्धि को प्राप्त हुआ उसके मन में परम प्रीति जगी ( परमसोमण रसए) वह परम सौमनस्थित हुआ हर्ष के वश से उसका हृदय उछलने लगा और फिर वह जहां पर वह दिव्य चक्ररत्न था वहां पर गया (उवाग्गच्छिता तिवक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करित्ता करयल जाव कट्टु चक्करयणस्स पणामं करेइ) वहाँ जाकर के उसने तीनबार आदक्षिण प्रदक्षण किया दक्षिण हाथ की तरफ से लेकर वायें हाथ की तरफ तीन प्रदक्षिणाएं की तीन प्रदक्षणा करके फिर उसने करतल यावत् करके चक्ररत्न को प्रणाम किया यहां यावत्पद से " करयल ज्जित्था ) द्विव्य व्यरत्न उत्पन्न थयुं (तए णं से आउहघरिए भरहस्स रण्णो आउह घरसाला दिव्वं चक्करयणसमुदपणं पासइ) न्यारे न्यायुध शाजाना रक्ष भरतनी भायुधशाजामां हिव्य यारत्न उत्पन्न थयेषु यु तो (पासित्ता) लेने ते (हट्टतुट्ठचित्तमाणं दिए नंदिए पोमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहिए जेणामेव दिव्वे चक्करयणे तेणामेव उबागच्छर) हृष्ट-तुष्ट अत्यंत तुष्ट थयो भने वित्तमां यानं हित थये।. અહીં પ્રાકૃત હોવાથી મકાર લાક્ષણિક છે. અથવા તે પૃષ્ટ તુષ્ટ થયે એનું તાપ આ પ્રમાણે પણ થાય છે કે તે બહુ જ વધારે તુષ્ટ થયા અને મેં અપૂર્વ વસ્તુ જ જોઈ છે. એ વિચારથી વિસ્મિત પણ થયા તથા બહુ જ સારું` થયુ` કે જે સર્વ પ્રથમ એ અપૂર્વ વસ્તુના દનને લાભ મને જ મળ્યા. હવે તે એ વાતની જા હું મારા સ્વામીને કરીશ. એ જાતના વિચારથી તે સ ંતુષ્ટ થયા અને આનઃ યુકત થયા તેમ જ નંદિત થયે, મુખ પ્રસન્નતા આદિ ભાવેથી તે સમૃદ્ધિને પ્રાપ્ત થયા. તેના મનમાં પરમ પ્રીતિ જાગી (વરમ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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