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________________ ४० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे एव-रम्यः-रमणीयः तथा महामेष निकुरम्बभूतः-महामेघसमूहतुरल्यः-ते खलु पादपाः मूलवन्तः-दूरावगाढमूलसहिताः, कन्दवन्तः प्रशस्त मूलोपरिवर्ति-भागरूपकन्दयुक्ताः, तथा-स्कन्धवन्त:-स्कन्धः शाखाप्रभवप्रदेशः, स प्रशस्तोऽस्त्येषामिति स्कन्धवन्तः-प्रशस्त स्कन्धयुक्ताः, तथा-प्रवालवन्तः-प्रशस्तपल्लवाकरयुक्ताः तथा पत्रवन्तः-प्रशस्तपत्रसम्पन्नाः एवं पुष्षवन्तः, फलवन्तः बीजबन्तः प्रशस्त पुष्पफलबीजयुक्ता इति, तथा आनुपूर्वी सुजातरुचिरवृत्तभावपरिणताः आनुपूा-यथाक्रमं सुजाताः सुसमुत्पन्नाः अतएव रुचिराः सुन्द राश्च ते वृत्तभाव परिणता:-वृत्तभावेन-वर्तुलत्वेन परिणताः परिणामप्राप्ताः, एकस्कधिनः-एकस्कन्धवन्तः, अनेकशाखाप्रशाखाविटपा:-अनेके शाखा प्रशाखा विटपाः-तत्र शाखा:-प्रधानशाखाः, प्रशाखा:-अवान्तरशाखाः, विटपा:-विस्तारा येषां ते तथा बह ही सान्द्र होती है , इसीसे यह " रम्यः" बहुतरमणीय है " महामेघनिकुरम्ब मूतः" जिस प्रकार जल से भरे हुए मेघ प्रतीत होते हैं । उसी प्रकार से यह वनषण्ड भी प्रतोत होता है " मूलवन्तः" यहां जो वृक्ष हैं वे प्रशस्त मूल वाले हैं। अर्थात् इनकी जड़े बहुत ही दरतक जमीन के भीतर गई हुई हैं । प्रशस्त कन्दवाले हैं । मूल के ऊपरि वर्ती भागरूप प्रशस्त कन्द से युक्त हैं। प्रशस्तस्कन्ध - वाले है- शाखाएँ जिस स्थान से उत्पन्न होती हैं उस स्थान का नाम स्कन्ध है , प्रशस्त प्रवाल वाले हैं । प्रशस्त पल्लवाङ्कुरों से युक्त हैं । प्रशस्त पत्रों वाले हैं. प्रशस्त पुष्पों वाले हैं , प्रशस्त फलों वाले हैं , प्रशस्त बीज वाले हैं । इसतरह प्रशस्त पुष्प . फल और बीज से युक्त यहां के वृक्ष हैं " आनुपूर्वी सुजातरुचिरवृत्त भाव परिणताः " तथा ये वृक्ष क्रम २ से अच्छी तरह से उत्पन्न हुए हैं अतएव ये रुचिर - सुन्दर हैं और वृत्त भाव को परिणत हुए हैं , छते का जैसा आकार होता है वैसा इनका आकार है । इनमें अनेक स्कन्ध नहीं हैं किन्तु एक ही स्कन्ध है , “ अनेक शाखा प्रशाखाविटपाः " ये अनेक प्रधान २ छाया २३ छ ते ५५ १ सi य छे. मेथी मा “रम्य;" ५५ २४ २मणीय छे. "महामेधनिकरम्बभतः" २reलात मेघ मासूम ५४ छ तभक मा बन५ ५॥ मालाम पछ. "मलवन्तः" मही २ वृक्षा छे प्रशस्तभूसवा छे मेटले समनी को ખૂબ જ દુર સુધી જમીનની અંદર પહેાંચેલી છે. તેઓ પ્રશસ્ત કદવાળા છે મૂળના | ભાગ રૂપે પ્રશસ્ત કન્દોથી યુક્ત છે. પ્રશસ્ત સ્કન્ધવાળા છે. શાખાઓ જે સ્થાનેથી હત થાય છે તે સ્થાનનું નામ સ્કન્ધ છે. પ્રશસ્ત પ્રવાલવાળા છે. પ્રશસ્ત પલ્લવાંકોથી યુકત છે. પ્રશસ્ત પત્રોવાળા છે. પ્રશસ્ત પુષ્પવાલા છે પ્રશસ્ત ફલવાળા છે પ્રશસ્ત બીજ. पामा छे. मी प्रमाणे प्रशस्त पु०५ ५ मने पानथा युत महीना वृक्षा छ, “आन. पूर्वी सुजातरुमिरवृत्तभावपरिणताः" मा या वृक्षा मनमे सारी रीत ५-1 था છે. એથી આ બધાં રુચિર સુંદર છે. મધપૂડાને જે આકાર હોય છે તે જાતનો આકાર એમને छ. मामा ! २७न्धी नयी ५२तु न्य छे. "अनेकशाखाप्रशाखाविटपा" मेगा ઘણી પ્રધાન શાખાઓ અને અવાન્તર શાખાઓના વિરૂપ-વિસ્તારથી યુકત છે. એ ઉપરિવતે જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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