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________________ ४९६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे इत्यादि-'सुहोवभोगं' इत्यन्तपदत्रयस्यार्थः पञ्चपञ्चाशत्तमे सूत्रेऽवलोकरीय इति (पासिता) दृष्ट्वा अवलोक्य (बिलेभ्यः (णिद्धाइस्संति) निर्धाविष्यन्ति-निर्गमिष्यन्ति (णिद्धा. इत्ता) निर्धाव्य-निर्गम्य (हतुट्ठा) हृष्टतुष्टाः-हृष्टाः-आनन्दिताश्च ते तुष्टाः-संतोषमुपगताश्चेति तथा आनन्द संतोष चोपगता इत्यर्थः (अण्णमण्णं) अन्योन्यम् परस्परं (सदा. विति) शब्दयन्ति, (सहावित्ता) शब्दयित्वा (एवं चदिस्संति) एवं वदिष्यन्ति-कथयिष्यन्ति, किं कथयिष्यन्ति ! इत्याह 'जाए ण' इत्यादि । (जाए णं) जातं खलु (देवाणुप्पिया ! ) देवानुप्रियः (भरहे वासे) भरतं वर्षे (परूढ-रुक्ख-गुच्छ-गुम्म लय-वल्लितण-पन्चय-हरिय जाव सुहोवभोगे) प्ररूढ़-वृक्ष-गुच्छ -गुल्म- लता-चल्लि-तृण-पर्वगहरित यावत् सुखोपभोगम् , (तं जे णं देवाणुप्पिया अम्हं केइ) तद् यः खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकं कश्चित् हे देवानुप्रियाः भरतवर्षस्य वृक्षगुच्छगुल्मलतादिसंपन्नत्वेन सुखोपभोग्यत्वात् अस्माकं मध्ये यः कश्चित् (अज्जप्पभिई) अद्यप्रभृति अद्यारभ्य (असुभं कुणिमं आहार) अशुभं कुणपम् आहारम्-अप्रशस्तं मांसाहारम् (आहारिस्सइ) आहरिष्यति (से णं) स खलु (अणेगाहिं छायाहिं) एनेकाभिश्छायाभिः अनेकसंख्यक पुरुषच्छाया यह क्षेत्र सुख से उपभोग करने योग्य हो चुका है इस प्रकार का (पासित्ता) ख्याल करके वे (बिलेहितो णिद्धाइस्संति) अपने अपने विलों से बाहर निकल आयेंगे, और (णिद्धा इत्ता) बाहर निकल कर के फिर वे (हद्वतुद्वा अण्णमण्णं सदाविति) वडे ही आनन्द से और संतोष से युक्त हुए आपस में एक दूसरे के साथ विचार विनिमय करेंगे (सदावित्ता एवं वदिस्संति विचार विनिमय करके फिर वे इस प्रकार से एक दूसरे से कहेंगे (जाएणं देवाणुप्पिया ! भरहे वासे परूढरुख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पव्वय-हरिय-जाव सुहोवमोगे) हे देवानुप्रियो ! भरत क्षेत्र वृक्षों से, गुच्छों से, गुल्मो से, लतोओं से, वल्लियों से, तृणों से एवं हरित दर्वादिको से युक्त होकर सुखोपभोग बन गया है (त जे णं देवाणुप्पिया अहं केइ अज्जप्पभिइ असुभं कुणिमं आहारं आहरिस्सइ) अतः अब जो कोई हे देवानुप्रियो ! हम लोगों में से आज से लेकर अशुभ, अप्रशस्त-आहार करेगा (से णं अणेगाहिं छायाहिं वज्जणिज्जति) वह अनेक पुरुषों भनुष्य नशे भा क्षेत्र सुभोपलाग्य थ युज्यु छ तो मारोते (पासित्ता) भ्यास उशन तमा (बिलेहितो णिद्धाइस्संति) पातपाताना (भीमाथी मा नीजी मारी भने (निद्धाइत्ता) महार निजीने पछी तमा (हवतुट्टा अण्णमण्णं सद्दर्शित) मई मान हित भने संतुष्ट यये तमा ५२२५२ मे४- मीनी साथे पिया२ विनिमय ४२ ( सवित्ता, एवं वदिस्संति) विया२ विनिमय ४शन पछी तेथे। मा प्रमाणे मीलने हशे (जए णं देवाण प्पिया ! भरहे वासे पउढरुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लितणपब्वयहरिय जाव सुहोवभोगे) है દેવાનુપ્રિયે ભારતક્ષેત્રન ક્ષોથા, ગુચ્છાથી, ગુલમોથી લતાઓથી વહિલાથી તેમજ હરિત દુર थी युत थ ने सुखोप सोय मनी आयुछे ( तंजेण देबुणुप्पिया अम्हं केइ अजप्प मिइ असुम कुणिम आहारं आहरिस्सइ) मेथी वेथी मा५७iमाथी ५०? है वानु(प्रथे। । अशुभ-मप्रशस्त मेहा२ ४२० (से णं अण्णे णाहि छाहिं वणिजति) ते भने જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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