SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 479
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६७ प्रकाशिकाटीका द्वि० वक्षस्कार सू.० ५४ षष्ठारकस्वरूपनिरूपणम् वधः चपेटादिभिस्ताडनं, बन्धः रज्जुभिर्नियमनम्, वैरं शत्रुता, एषां द्वन्द्वः, तत्र निरताः =संलग्नाः, तथा (मज्जायातिक्कमप्पहाणा) मर्यादाऽतिक्रमप्रधाना:-मर्यादा-व्यवस्था, तस्या अतिक्रमे-उल्लङ्घने प्रधानाः-प्रमुखाः (अकज्जणिच्चुज्जुया) अकार्यनित्योयुक्ताःअकार्ये-अकर्तव्ये कर्मणि नित्यं सर्वदा उद्युक्ताः-संलग्नाः, तथा (गुरुणिोगविणयरहिया) गुरुनियोगविनयरहिताः गुरूणां-मातापित्रादिकानां यो नियोगः-नियोजनं संयोजनं,तत्र यो विनयः विनीततातन्नियोगस्वीकाररूपा तेन रहिताः-मातापित्रादि गुरुजनाज्ञोल्लड़का इत्यर्थः (य) च-पुनः (विकलरूवा) विकलरूपा:-विकलम-असंपूर्ण रूपम-आकारो येषां ते तथा नेत्राद्यङ्गवैकल्येन असम्पूर्णाङ्गोपाङ्गाः, तथा (परूढणहकेसमंसुरोमा) प्ररूढनखकेशश्मश्रुरोमाण:-प्ररूढानि संस्काराभावात् प्रकृष्टतया वृद्धि गतानि नखकेशश्मश्रुरोमाणि येषां ते तथा (काला) कालाः कृष्णवर्णाः कृतान्तवत् क्रूरा वा (खरफरुससामवण्णा) खरपरुषश्यामवर्णाः-खरपरुषा:-प्रकृष्टकठोरस्पर्शाश्च ते श्यामवर्णाः-श्यामवर्णवन्तश्च ये ते तथास्पर्शतः सातिशयकठोराः वर्णतश्च नोलीभाण्डे निक्षिप्तोरिक्षसवस्रवत् नीला इत्यर्थः, तथा ने में, वध चपेटा आदि द्वारा ताडना-करनेमें वन्ध में-रज्जु आदि द्वारा दूसरों को बांधने में, वैर में शत्रुता करने मे, ये संलग्न रहेगे-ऐसे कार्यों में ये विशेषरूप से रत रहा करेंगे! मर्यादाव्यवस्था के अतिकमण करने में ये कटिबद्ध रहेंगे । एवं माता पिता आदिरूप गुरुजनों की बिन यादि किया करना उनकी आज्ञा मानना आदि बातों को ये परवाह तक भी नहीं करेगें. (विकलरूवा ) इनके अङ्गोपाङ्ग पूर्ण नहीं होगें किसान किसी अङ्ग उपाङ्ग से ये होन रहेंगे. तथा ( परूढणहकेसमंसुरोमा ) इनके नख बड़े रहेगें, इनके मस्तक के बाल संस्कार रहित होने से बडे रहेगें. दाढ़ी के बाल और मूछों के बाल भो आवश्यकता से अधिक वृद्धिंगत होगें. (काला वरफरूससामवण्णा, फुटसिरा, कपिलपलियके सा, बहुण्हारुणि संपिणद्ध दुद्द सणिज्जरूवा संकुडिअबलितरंगपरिवेढिअंगमंगा जरा परिणयव थेरगणरा पविर लपविसइ अ दंत सेढो, उन्भडधडमुहा ) वर्णमें बिलकुल काले होगें, अथवा कृतान्त की तरह क्रूर होंगे. इनके शरीर का स्पर्श बहुत अधिक નક દ્રવ્યમાં. પટમાં–પરને પ્રસારણ કરવા માટે વેષાનતર કરવામાં, કલહ-કલહ-કંકાસ કર, માં, વધ ચપેટા આદિ દ્વારા તાડના કરવામાં બંધમાં રજજુ આદિ દ્વારા બીજાઓને બાંધ. માં, વૈરમાં શત્રતા કરવામાં એઓ સંલગ્ન રહેશે. એવા કાર્યો માં તેઓ વિશેષ રૂપથી ત રહેશે. મર્યાદા-વ્યવસ્થા–કે અતિક્રમણ કરવામાં એઓ કટિબદ્ધ રહેશે તેમજ માતાપિતા વગેરે ગુરુજનોની વિનયાદિ ક્રિયા કરવામાં , તેમની આજ્ઞા માનવી વગેરે વાતેની भेम। ५२॥ ४२२ नही (विकलरूवा) मेमनी मांगे पूरी नलिन 164थी मे। हीन २३. तम (परूढणहकेसमंसुरोमा) मेमन। माथाना वाण સંસ્કાર રહિત હોવાથી મોટા રહેશે. દાઢી અને મૂછના વાળ પણ આવશ્યકતા કરતાં વધારે पाटा २९ (काला खरफरुससामवण्णा, फुट्ठसिरा, कपिलपलियकेसा बहुण्हारुणि संपि गद्धदुद्दसणिज्जरूवा संकडिअवलितरंगपरिवेढिअंगमंगा जरापरिणयव्वथेरगणरा पविरलविसइ अ दंतसेढी, उब्भडघडमुहा) मेमे पाभा साप 11 थशे, अथवा तातिनी જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy