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________________ प्रकाशिकाटीका द्वि० वक्षस्कार सू.५३ पञ्चमारकस्वरूपनिरूपणम् वर्षाणि किञ्चिदधिकानि (आउअं) आयुष्कम् आयुः (पालेति) पालयन्ति अनुभवन्ति (पालित्ता) पालयित्वा अनुभूयायुस्तत्र (अप्पेगइया) अप्येकके केचित् (णिरयगामी) निरयगामिनः (जाय) यावत् अत्र यावत्पदेन- "तिर्यग्गामिनः, मनुष्यगामिनः देवगामिनः, अप्येकके सिध्यन्ति बुध्यन्ते मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति" इत्येषां सङ्ग्रहो बोध्यः एतद्वयाख्याऽव्यवहितपूर्वकृता ग्राह्या, (सव्वदुक्खाणमंतं) सर्वदुः खानामन्तं नाश (करेंति) कुर्वन्ति, पुनरपि दुष्पमायाः समायाः पश्चिमत्रिभागे निजज्ञाति प्रभृति धर्मव्युच्छेदनार्थमाह(तीसे) तस्याः दुष्षमायाः (णं) खलु (समाए) समायाः कालस्य (पच्छिमे) पश्चिमे पाश्चात्ये अन्तिमे (तिभागे) त्रिभागे भागत्रये अंशत्रितये (गणधम्मे) गणधर्म समुदायधर्मः मनुष्यों के ६ प्रकार का संहनन होगा छह प्रकार का संस्थान होगा-इत्यादिरूप से वह सब कथन पहिले कहे गये जैसा ही जानना चाहिये विशेष उनको सात हाथ की ऊँचाई वाला शरीर होगा यद्यपि कोष में बद्धमुष्टि हाथ को "रत्नि" शब्द से कहा गया है, फिर भी सिद्धान्त की परिभाषा के अनुसार यहां पूरे हाथ को ही रनि शब्द से पकड़ा गया है यहां के मनुष्य उत्त काल में जघन्य अन्तर्मुहूर्त की आयुवाले और उत्कृष्ट से कुछ अधिक १ सौ वर्ष की आयु वाले होगें इतनी आयु को भोगकर (अप्पेगइया) कितनेक मनुष्य (णिरयगामी) नरकगामी होंगे (जाव सव्वदुक्खाणमंत करेंति) यावत्-कितनेक तिर्यग्गतिगामी होंगे कितनेक मनुष्यगतिगामी होंगे कितनेक देवगतिगामी होंगे, तथा कितनेक "सिध्यन्ति' सिध्दिपद को प्राप्त करेगें "बुद्धयन्ति” केवल ज्ञान से चराचर लोग का अवलोकन करेंगे "मुच्यन्ते" समस्त कर्मो से रहित हो जायेगें "परिनिर्वान्ति-शोतीभूत हो जायेगें और समस्त दुखों का अन्त करदेगें पंचम काल में जो जीवों के मुक्ति प्राप्त करने का यह कथन किया है वह चतुर्थ आरे में उत्पन्न हुए जीव का ही समझना चाहिये. पंचम आरे में उत्पन्न हुए जीवों का नही (तीसेणं समाए હે ગૌતમ ! તે કાળના મનુષ્યના ૬ પ્રકારના સંહનને હશે, ૬ પ્રકારના સંસ્થાને છે. વગેરે રૂપમાં આ બધું કથન પહેલા જે પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે, તેમજ સમજી લેવું હશેષ તેમને સાત હાથની ઊંચાઈ વાળું શરીર હશે. જો કે કોશમાં બદ્ધમષ્ટિ હાથને “પત્નિ' કહેવામાં આવેલ છે. પણ સિદ્ધાન્તની પરિભાષા મુજબ અહી આખા હાથને ત્નિ” શબ્દ વડે માનવામાં આવેલ છે. અહીંના મનુષ્યો તે કાળમાં જઘન્ય અન્તર્મહત્ત રટલું આયુષ્ય ધરાવતા અને ઉત્કૃષ્ટ કરતાં કંઈક વધારે એક સે વર્ષ જેટલું આયુષ્ય ધરા बना। हरी, मासुमायुष्य मागवान (अप्पेगइया) 30 मनुष्य। (णिरयगामी) न सभी थशे. (जाच सयदुक्खाणमंतं करैति) यावत् सा तिय तिगामी यशे, माध्यति भी थशे. या वसतिगामी थशे तमा इटा 'सिध्यन्ति' सिद्ध पहन प्रात ४२. 'बुध्यन्ति" 34 ज्ञानथी य२राय२ वा अवसान २शे. "मुच्यन्ते, अमरत थी २हित थशे. 'परिनिर्वान्ति शीतीभूत ७४ भने समस्त माना અત્ન કરશે. પંચમકાળમાં જવાની મુક્તિ પ્રાપ્ત કરવા સંબંધી જ આ કથન અત્રે પણ કરવામાં આવેલ છે તે ચતુર્થ આરામાં ઉત્પન્ન થયેલ જીવો માટે જ સમજવું જોઈએ. જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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