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________________ प्रकाशिकाटीका द्वि० वक्षस्कार सू.५३ पञ्चमारकस्वरूपनिरूपणम् ४४९ (आलिंगपुक्खरेइ पा) आलिंङ्ग पुष्करमिति या आलिङ्ग:-मुरजो वाद्यविशेषः, तस्य पुष्करं चर्म पुटं तदत्यन्तसमतलं भवतीति तत्तुल्यसमतलत्यात्तदेव इति । इति शब्दोहि साहश्यार्थकः या शब्दः समुच्चयार्थकः, एषयग्रेऽपि (मुइंगपुक्खरेइ वा) मृदङ्गपुष्करमिति वा (जाय) यावत् इह यावत्पदेन 'सरतलेइ या' इत्यादीनां सङ्ग्रहः ५१ एकपञ्चाशत्तमसूत्रे कृतस्तदनुसारेण बोध्यः, तेषां व्याख्या च तद्वत् (णाणामणिपंचवण्णेहि) नानामणिपञ्चवर्णैः नाना-नानाविधैः मणिभिः कीदृशैः पञ्चवर्णैः कृष्णनीलशुक्लहारिद्रलोहितः पुनः को दृशैस्तैः(कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेय) कृत्रिमैश्चैव अकृत्रिमैश्चैव रचितैः स्वाभाविकैश्च मणिभिरूपशोभितो भूमिभागो भरतवर्षस्य भविष्यतीति प्रयोगः पृच्छकापेक्षया, अत्र भूमेबहुसमरमणीयत्यादिकं चतुर्थारकतो हीयमान २ कालक्रमेणात्यन्तं हीनं बोध्यम्, ननु “खाणुबहुले यिसमबहुले” इत्यादिनाऽधस्तनसूत्रेण लोकप्रसिद्धेन च विरुध्यते मुइंगपुक्खरेइ वा जाव सरतलेइया' हे गौतम उस समय में उस भरत क्षेत्र का भूमिभाग ऐसा अत्यन्त समतलपाला, रमणीय होगा जैसा कि वाद्यविशेष मुरज मृिदंग] का पुष्कर-चर्मपुट अत्यन्त समतल वाला होता है मृदङ्ग का मुख्य समतल वाला होता है. यहां "इति" शब्द सादृश्यार्थक है और "वा" शब्द समुच्चयार्थक हैं. इस तरह से इन शब्दों के सम्बन्ध में आगे भी जानना चाहिये. यहां यावत्पद से "सरतलेइया" इत्यादि पद का संग्रह हुआ है. यह संग्रह ५१ चे सूत्र में किया गया प्रकट किया है. भरतक्षेत्र का यह भूमिभाग (णाणामणि पंच यण्णेहिं कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेय) अनेक प्रकार के पांच वणौ वाले कृत्रिम मणियों से एवं अकृत्रिम मणियों से उपशोभित होगा यहां पृच्छक की अपेक्षा से भी यह भविष्यत्काल का प्रयोग हुआ है. यहां भूमिभाग में बहुसमरणीयता आदि चतुर्थ आरक की अपेक्षा होयमान हीयमान कालकम के अनुसार अत्यन्त हीन जाननीचाहिये. यहां ऐसो आशंका नहीं करनी चाहिये-“खाणु बहुले विसम बहुले" इत्यादि सूत्र द्वारा पंचम काल में भरतक्षेत्र की भूमि स्थाणु बहुल आदि रूप भागे भविस्सइ से जहा णामए आलिंगपुक्तरेइ धा मुइंगपुक्खरेइ था जाय सरतकेइचा) ॐ गौतम ते समये २ लरत क्षेत्रमा भू- माया मयत समतल, २भणीय थरी જે કે વાદ્યવિશેષ મુરજ (મૃદંગ) ને, પુષ્કર-ચમપુટ અત્યંત સમતળ હોય છે. મૃદં, ગનું મુખ સમતળ હેય અહીં “ઈતિ” શબ્દ સાદેશ્યાર્થક છે અહીં “ધ' શબ્દ સમુચ્ચયાર્થક છે. આ પ્રમાણે આ શબ્દોના સંબંધુંમાં આગળ પણ જાણવું જોઈએ. અહીં યાવત પદથી "सरतलेइया" त्या पहीन अहए। युछे. मेपन (५१) ॥ सूत्रमा यात यथा ग्रहीत स पह। श्यामां भाव छ भरतत्रने। भाभिमा (णाणामणि पंचपपणेहि कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहिं चेय) मन: प्राना पांय या त्रिम माग છે તેમજ અકૃત્રિમ મણિઓથી ઉપશાબિત થશે. અહીં પૃચ્છકની અપેક્ષાએ પણ ભવિષ્ય હાલન પ્રયોગ કરવામાં આવેલ છે. આ ક્ષેત્રના ભૂમિભાગની બસમરમણીયતા વગેરે ચતુર્થ આરની અપેક્ષાએ હીયમાન કાલક્રમ મુજબ અત્યંતહીન સંમજવી. અહીં' આ જાતની । थवा न 'खाणु चहले विसमबहुले" त्याहि सूत्र ५ ५यभामा लरत ५७ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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