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________________ ४३० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे विकुरुत 'विउच्चित्ता' विकुर्व्य - उत्पाद्य 'अगणिकायं' अग्निम् 'उज्जालेह' उज्ज्वलयत - प्रदीपयत प्रदीप्य 'तित्थगर सरीरगं' तीर्थकरशरीरं 'गणहरसरीरगाई' गणधर शरीरकाणि 'अणगार सरीरगाई' अनगारशरीरकाणि च 'झामेह' ध्यापयत-तरणं शक्राज्ञा श्रवणानन्तरम् 'ते' ते - पूर्वोक्ताः 'वाउकुमारा' वायुकुमाराः 'देवा' देवा 'विमणा' विमनसः विषण्ण हृदया: 'णिरागंदा' निरानन्दाः आनन्दरहिताः दुःखाकुलाः अतएव 'अंसुपुण्णणयणा' अश्रुपूर्णनयना वाष्पाकुलनेत्राः 'तित्थयर चिइगाए' तीर्थकरचितिकायां जिनचितायाम् ' जाव' यावत् - यावत्पदेन - 'गणहरचिइगाए अणगारचिइगाए य अग्निकार्य' इत्यस्य संग्रहः, तस्य च 'गणधरचितिकायाम् अनगारचितिकायाम्' चाग्निकायम् इतिच्छाया, गणिचितायाम् अनगारचितायाम् अग्निमिति तदर्थः 'विउव्वंति' विकुर्वन्ति वैक्रियशक्त्योत्पादयन्ति, तथा 'अग्गिकार्यं' अग्निकायम् - अग्निम् 'उज्जाले ति' उज्ज्वलयन्ति प्रदीपयन्ति प्रदीप्तेन चाग्निना 'तित्थयरसरीरगं' तीर्थकरशरीरकं 'जाव' यावत् - यावत्पदेन 'गणहर - सरीरगाई' इत्यस्य संग्रहः, तस्य च 'गणधरशरीरकाणि' इतिच्छाया, गणधर कलेवराणीति तदर्थः, 'अणगारसरीरगाणि य' अनगारशरीरकाणि च 'झामेंति' ध्मापयन्ति - संयोजयन्ति 'तपणं' ततः तदनन्तरं खलु जिनादिशरीरेषु दहनसंयोजनानन्तरम् ' से ' तीर्थकर की चिता में यावत् अनगार की चिता में 'वाउक्कायं' वायुकायको 'विकुव्वह' विकुर्वित करो 'विउब्वित्ता' वैक्रियशक्ति से उत्पन्न कर के 'अगणिकार्य' अग्निकायको 'उज्जालेह' प्रदीप्त करो प्रदीप्त करके 'तित्थगरसरीरगं' तीर्थकरके सरीर को 'गणहरसरीरगाई' गणधरों के शरीर को एवं 'अणगार सरीरगाई' शेष अनगार के शरीर का 'झामेह' अग्निसंयुक्त करो "तणं ते वाउ कुमारा देवा विमणा निराणंदा अंसुपुण्णणयणा' इसके बाद उन वायुकुमार देवों ने विमनस्क एवं आनन्द रहित होकर तथा नेत्रों में जिनके अश्रु भरे हुए हैं ऐसे होकर 'तित्थगरचिइगाए' जिनेन्द्रदेव की चिता में " जाव" यावत्- गणधरों की चिता में एवं अनगारों की चिता में अग्निकाय की विकुर्वणा की, तथा “अग्गिकायं उज्जालेति" उसे प्रदीप्त किया, प्रदीप्त हुई उस अग्नि साथ फिर उन्होंने “तित्थगरसरीरगं" तीर्थंकर के शरीर को " जाव" यावत् - गणधरों के | 'विउच्चित्ता' वैयि शक्तिथी वायुभयने उत्पन्नरीने 'अगणिकार्य' अग्नि ने 'उज्जा लेह' अहीप्त छ। थे प्रमाणे अग्नियने अहोप्त उरीने 'तित्थगरसरीरंग' तीर्थरना शरीरने यावत् 'गणहरसरीरगाई' गणधरोना शरीरने तेभन 'अणगारसरीग्गाई' शेषमनगाना शरीरने 'झामेह' अभियुक्त रे। (तएण ते वाउकुमारा देवा विमणा णिराणं दा सुपुण्णणया) त्यार माह ते वायुभार हेवेो विमनस् तेमन आनंद विहीन थाने तेभन अश्रुलीना नेत्रोथी (तित्थगर चिइगाए) मिनेन्द्रनी यितामां (जाव) यावत् जाशुधरोनी यिताभां तेभक अनगोरोनी शितामां अग्निमयनी विठु पुरी तेन (अग्निकार्य उज्जाति) तेने अहीस . अहीस थयेल ते अग्निनी साथै भो (तित्थगर सरीरगं) तीर्थरना शरीरने यावत् गएधरोना शरीराने (अणगार सरोरगाणि) अनगाशना शरीराने જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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