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________________ प्रकाशिकाटीद्वि० वक्षस्कारसू. ५० कलेवरा णिचि तोपरिस्थापनानन्तरिकशक्रादिकार्यनिरूपणम् ४२९ वैक्रियशक्त्योत्पाद्य 'एयमाणत्तियं' एतामाज्ञप्तिकाम् इमामाज्ञां पालितां सतीम् 'पच्चftone' प्रत्यर्पयत अस्माभिर्भवदाज्ञामग्निविकरणकार्य कृतमिति मदाज्ञां पूर्णां निवेदयत 'तरणं' ततः - तदनन्तरम् खलु अग्निकुमारान्प्रति शक्रस्याग्निकाय विकरणाज्ञानन्तरम् 'ते' ते शक्राज्ञप्ताः 'अग्निकुमारा' अग्निकुमाराः 'देवा' देवा: 'विमणा' विमनसः विषण्णचित्ताः 'णिरागंदा' निरानन्दाः- आनन्दरहिताः दुःखिनः सन्तः अतएव 'असुपुण्णणयणा' अश्रुपूर्ण नयना - बाप्पा कुलनेत्राः 'तित्थयरचिइगाए' तीर्थकर चितिकायाम् 'जाव' यावत् - यावत्पदेन - 'गणहर चिइगाए' इति संग्रहो बोध्यः, तस्य 'गणधरचितिकायाम्' इति छाया गणधरचितायामिति तदर्थः, 'अणगारचिइगाए य' अनगारचितिकायां च 'अगणिकाय' अग्निकम् - अग्नि 'विब्वंति' विकुर्वन्ति, 'तपणं' तदनन्तरम् अग्निकुमार देवैः अग्निकाय विकुर्वणानन्तरम् से देविंदे देवराया' सः देवेन्द्रः देवराजः 'वाउ कुमारे देवे सहाबेइ' वाउ कुमार देवान् शब्दयति, आह्वयति 'सद्दाविता' आहूय 'एवं वयासी' एवमवदत् - 'खिपामेव भो देवाणुपिया' क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः 'तित्ययरचिइगाए जांव अणगारचिङ्गाए' तीर्थंकरचितिकायां यावत् अनगारचितिकायां 'वाउक्कार्य' वायुकायम् 'विउव्वह' वैक्रियशक्ति से अग्नि को उत्पन्न करके " एयमाणत्तियं" फिर इस मेरी आज्ञा की "यह पालित की जा चुकी है" - इस प्रकार से "पचप्पिणह" हमे खबर दो " तरणं" इसके अनन्तर "ते अग्गिकुमारा देवा" उन अग्गिकुमार देवों ने खेद - खिन्न चित्त होते हुए, आनन्द रहित चित्त होते हुए और अश्रुपूर्णनेत्र होते हुए तीर्थकर की चिता में, यावत् गणधरों की चिता में और " अणगारचिइगाए” शेष अनगारों की चिता में "अगणिकायं विउव्वंति" अग्निकाय की विकुर्वणा शक्ति से उत्पत्ति की 'तएणं' अग्निकुमार देवोंने तीर्थकरादि के शरीर में अनिकाय की विकुर्वणा करने के बाद 'से देविंदे देवराया' वह देवेन्द्र देवराज ने 'वाउकुमारदेवे सदावेह' वायुकुमार देवों को बुलाया 'सद्दावित्ता' बुलाकर 'एवं बयासी' उन वायु कुमार देवों को इस प्रकार कहा 'खिप्पामेव भो देवाणुपिया' हे देवानुप्रिय शीघ्र ही 'तित्थगर चिइगाए जाव अणगारचिइगाए ' वैठिय शक्तिथी अग्नि उत्पन्न उरीने (एयमाणत्तियं) पछी या भारी माज्ञानु अक्षरशः पास थर्ध लय त्यारे 'आज्ञानु' यथावत् पासन थ ग छे' से प्रभाशे ( पच्चदिपणह) भने अमर आये. (तरण) त्यार माह (ते अग्गिकुमारा देवा) ते अग्निकुमार वा ખેદ ખિન્ન ચિત્તવાળા થઈને અર્થાત્ આનંદ વહીન થઈને અને અશ્રુપૂર્ણ નેત્રવાળા થઈ ने तीर्थरनी शितामां यावत् गणुधरोनी यितामा अने (अणगारचिरगार) शेष मन. शाशनी चिता भां (अगणिकार्य विउव्वंति) अग्निमयनी विठुर्पणा शतिथी उत्पत्ति 'तपणं' अग्निकुमार देवाचे तीर्थं राहिना शरीरोमां अग्निमयनी विदुर्वा शक्तिथी उत्पत्तिर्यावाह 'से देविंदे देवराया ते देवेन्द्र देवराने 'वाउकुमारे देवे सहावेइ' वायुकुमार देवाने मोडाव्या "सदावित्ता' मेोसावीने ' एवं वयासी' मा प्रमाणे धुं “खिप्पामेव भो देवापिया' हे हेवानुप्रियो कहिथी “तित्थगरचिइगाए जाव अण गारचिइगए' तीर्थ ४२ नी यिताभां यावत् शेष मनगारोनी वित्तामा 'वाडकायं' वायुअयने 'विव्यह विदुर्वित જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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