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________________ ४२६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे. आरूढानि कुर्वन्ति 'आरुहित्ता' आरोप्य = आरूढीकृत्य 'चिइगाए' चितिकायां चितायां 'ठवेंति' स्थापयन्ति - निवेशयन्ति ॥ ०४९ ॥ अथ चितायां भगवदादिकलेवरस्थापनानन्तरं शक्रादिकृतिमाहमूलम् - तण से सक्के देविंदे देवराया अग्गिकुमारे देवे सहावे सदावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुपिया तित्थगरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए अगणिकार्य विउव्वह विउव्वित्ता एयमाणतियं पच्चप्पिणह, तरणं ते अग्गिकुमारा देवा विमणा निरानंदा अंसुपुण्ण णयणा तित्थयरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए य अगणिकायं विउव्वंति ari से देविंदे देवराया वाउकुमारे देवे सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! तित्थयरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए यवाक्कायं हि विउब्वित्ता अगणिकायं उज्जालेह तित्थयरसरीरगं गणहरसरीरगाईं अणगारसरीरगाई च झामेह तएणं ते वाउकुमारा देवा विमणा णिराणंदा अंसुपुण्णणयणा तित्थयरचिइगाए जाव विउव्वंति अग णिकार्य उज्जाति तित्थयरसरीरंगं जाव अणगारसरीरगाणि य झामें ति के कि जिन्होंने जन्म जरा और मरण को सर्वथा विनष्ट कर दिया है शरीरो को शिक्षिका में आरोपित किया, और "आरुहित्ता" आरोपित करके फिर उन्होंने "चिइगाए ठवेंति" उन शरीरो को चिता में रख दिया, ईहामृग - नाम वृक का है, वृषभ नाम बलीवर्द का है, तुरंग नाम घाड़े का हैं नर नाम मनुष्य का है, मकर नाम ग्राह का है, विहग नाम पक्षी का है, व्यालक नाम सर्प है. किन्नर व्यन्तरजाति के देवविशेषों का नाम है, रुरु नाम मृग का हैं, शरभ नाम अष्टापद का है, चमर नाम चमरी गाय का है, कुञ्जर नाम हाथी का है. जंगल की लताओं का नाम वनलता है ॥४९॥ દેવાથી માંડી તે વૈમાનિક સુધીના દેવાએ કે જેમણે જન્મ જરા અને મરણ ને સથા વિનષ્ટ કરી દીધા છે એવા ગણધર અને અનગારાના શરીરને શિખિકામાં આરેાપિત કર્યો अने 'आरुहिता' आरोपित पुरीने पछी तेभाणे 'चिइगाए ठवेति' शरीराने थिता पर भूमी हीघां, ईहामृग, वृहुनु नाम छे. वृषल, जसीवहनु नाम छे तुरंग, नाम घोडानु छे. नर, मनुष्यनु नाम छे भ४२, श्रीहनु नाम छे. विहग, पक्षी नाम छे. व्यास, सर्पनु नाम छे. द्विन्नर, व्यन्तर लतिना देव विशेष नाम छे. 33, भृगनु नाम छे. शरल, अष्टापदृतु' नाम छे, अमर, यभरी गायनु नाम छे. ४२, हाथीनु नाम छे. वनवता, જગલી લતા નું નામ છે. ૫ સૂત્ર ૪૯ ૫ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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