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________________ प्रकाशिकाटीका द्वि० वक्षस्कार सू. ३१ गड्डादिविषयकप्रश्नोत्तराणि २८३ मर्थ; समर्थः, यतो हे गौतम 'सा णं समा' सा सुषम सुषमाख्या समा खलु 'ववगय खाणु कंटगतण कयवरा' व्यपगत स्थाणुकण्टकतृणकचवरा-व्यपगताः दूरीभूताः स्थाणुकण्टक तृणकचवरा यस्यां सा तथाभूता स्थाणुकण्टकादिरहितेत्यर्थः, 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः । पुनर्गौतमस्वामी पृच्छति-'अस्थि णं भंते तीसे समाए भरहे वासे डंसाइवा' हे भदन्त सन्ति खलु तस्यां समायां भरते वर्षे दंशा इति वा दंशाः डांस इति भाषा प्रसिद्धाः 'मसगाइवा' मशका इति वा मशकाः 'मच्छर इति प्रसिद्धाः, 'जूआइवा यूकाइति वा ? यूकाः-जूं इति भाषा प्रसिद्धाः, 'लिक्खाइवा' लिक्षा इति वा 'लीख' इति भाषा प्रसिद्धाः 'टिंकुणाइ वा' ढिकुणा इति वा ढिंकुणाः मत्कुणाः, 'मक्कुणए ढिकुणा तहा ढंकणी पिहाणीए' इति देशीनाममाला 'पिसुआईवा' पिशुका इति वा । पिशुकाः 'पिस्सू सुल्ला' इति भाषाप्रसिद्धाः भगवानाह 'णो इणटे समटे' नो अयमथः समर्थः यतो हे गौतम ‘सा गं समा' सा सुषम सुषमा समा खलु 'ववगयडंसमसगजूअलिक्खढिकुण पिसुआ' व्यपगतदंशमशक यूकालिक्षाटिंकणपिशुका अत एव 'उवद्दवविरहिया पण्णत्ता, उपद्रवरहिता प्रज्ञप्ताः । पुनगो तम स्वामी पृच्छति 'अस्थि णं भंते ! इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम | "णो इणटे समढे" यह अर्थ समर्थ नहीं. अर्थात उसकाल में भरत क्षेत्र में स्थाणु आदि कुछ भी नहीं है. क्योकि “ववगयखाणु कंटक" सुषमसुषमा नाम का आरा स्थाणु, कण्टक, तृण और कचरा आदि से सर्वथा रहित ही होता है. ___ अब पुनः गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-"अत्थि णं भने ! तीसे समाए भरहे वासे डसाइ वा, मसगाइ वा जूआइ वा, लिक्खाइ वा०, इत्यादि-हे भदन्त ! उसकालमें इस भरतक्षेत्र में दंश-डास, मशक-मच्छर, यूक-जू, लिक्षा-लीखें टिंकुण-खटमल एवं पिशुक-पिस्स होते हैं क्या ! इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं हे गौतम ! “णो इणटे समटे" यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् उस काल में भरत क्षेत्र में डॉस, मच्छर आदि जीव नहीं होते हैं, क्योंकि "ववगय डंसमसकजूम लिक्ख." वह काल ही ऐसा होता है कि जिसमें ये उपद्रवकारी जीव भरतक्षेत्र में उत्पन्न नहीं होते हैं । पुनः अब गौतम स्वामी प्रभु से पूछते हैं "अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भने यर अन्य। मेरे हाय छ १ सेना नाममा प्रभु ४३ छ है गीतम! जो हर समढे' मा अर्थ समय नथी थेट मां मरतक्षेत्रमा स्थापणे हात નથી કેમકે સવાર ત્રાણુ ટવર સુષમસુષમા નામે કૂળ સ્થાણું કંટક તૃણ કચવર વગેરેથી सक्या हित हाय छे. हवेश गौतम प्रभुने मेवी शत प्रश्नं ४२ छ 'अत्थि ण भंते ! तीसे समाए भरहे वासे डसाइ वा मसगाइ वा जूआइ वा लिक्खाइ वा' इत्यादि" , ભદન્ત! તે કાળમાં તે ભરતક્ષેત્રમાં દંશ મશક મછર યૂક જૂ શિક્ષા લીખ ઢિંકણ માંકડ અને પિશુક ડાંસો હોય છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે, गीतम! "णो इणठे समठे' या मथ समथ नथी थेट मां सरतमi siस, भ७२ वगेरे वा हाता नथी, १२ : "बवगय डंसमसकलिक्ख०, इत्यादित કાળ જ એ હોય છે કે જેમાં એ ઊં પદ્વવકારી છે ભરતક્ષેત્રમાં ઊત્પન જ થતાં નથી. शव गौतम स्वामी प्रसुने प्रश्न ४रे छ । “अत्थि ण भते! तीसे समाए भरहे वासे જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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