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________________ प्रकाशिकाटीका सू० २ गौतमवर्णनम् कत्वेन, ज्वलत्तेजस्वीत्यर्थः, तप्ततपा:-येन तपसा ज्ञानावरणीयाद्यष्टकर्म भस्मी भवति तादृशं तपस्तप्तं येन स तथा, कर्म निर्जरणार्थ तपस्यावान । महातपा।-आशंसादोषरहितत्वात् प्रशस्ततपाः, उदार:-सकलजीवैः सह मैत्रीकरणात् प्रधानः, घोरः परीषहोयसर्गकषायशत्रुप्रणाशन विधौ भयानकः, धोरव्रतः-घोरं कातरैर्दुश्चरं व्रतं सम्यक्त्व शीलादिकं यस्य स तथा, घोरगुणः-घोरा:-अन्यैर्दुरनुचरा गुणा:-मूल गुणादयो यस्य स तथा । चोरतपस्वी घोरैस्तपोभिस्तपस्वी-कठिनतपोधारीत्यर्थः, घोरब्रह्मचर्यवासी घोरंदारुणं-कठिनम् अन्यैरल्प सत्त्वैर्दुष्करत्वादयद् ब्रह्मचर्य तत्र वस्तुं स्थातुं शीलवान् , उच्छदग्ध करने में कसर नहीं रखती हैं ठीक इसी प्रकार से इनका उग्रतप भी कर्मरूप कान्तार को सर्वथा क्षपित करने में समर्थ था यही बात दीसतप विशेषण से सूत्रकार ने प्रकट की है । तप्ततपाः" पद से यह समझाया गया हैं कि तपस्या की आराधना ये किसी लौकिक कामना के वशवर्ती होकर नहीं कर रहे थे किन्तु कर्मों की निर्जरा होने के निमित्त से ही करते थे "महातपाः " इन्हें इसलिये कहा गया है कि जैसी तपस्या ये करते थे-वैसी तपस्या अन्य साधारण तपस्विजनो से होनी अशक्य थी ये बड़े उदाराशयवाले थे क्यों कि सकल जीवों के साथ इनका व्यवहार मैत्री भावसे युक्त था घोर ये इसलिये प्रकट किये गये हैं कि परीषह और उपसर्ग के आजाने पर ये विचलित नवीं होते थे तथा कषीयादि आत्मा के विकारी भावों को ये अपने पास तक नहीं आने देते थे ये विकारीभाव उनके समीप तक आने में भय खाते थे धोर व्रतकातरों से दुश्चर इनके व्रत-सम्यक्त्व शीलादिवत थे घोरगुण-मूलगुणादिक जो इनके गुण थे वे अन्य जनों द्वारा दुरनुचर थे घोरतपस्वी ये इसलिये थे कि ये कठिन से कठिन तपों की आराતપની આરાધનામાં તેઓ તલ્લીન હતા. જેમ અગ્નિ વનને દગ્ધ કરવામાં કચાશ રાખતી નથી, તેમ એમનુઉગ્ર તપ પણ કર્મ રૂપ કાંતાર (વન) ને સર્વથા ક્ષપિત (વિનષ્ટ) કરવામાં समतु से पात 'दीप्ततप' विशेषथी सूत्रारे ५८ ४१ छ 'तप्ततपाः ५६थी આમ સમજાવવામાં આવ્યું છે કે તપસ્યાની આરાધના એઓ કોઈ લૌકિક કામના માટે ४२ता न होता ५२तु भीनी नि०२। भाटे ४ मेम। ४२त। उता. "महातपाः” भने એટલા માટે કહેવામાં આવેલ છે કે જે જાતની તપસ્યા એઓ કરતા હતા. તેવી તપસ્યા બીજા સાધારણ તપસ્વીઓ માટે એકદમ અશકય જ હતી. એઓ બહુજ ઉદાર આશય युत ता. भोसलवानी साथे सेमना व्यवहार मैत्री भावपूरहता. समान घार' એટલા માટે કહેવામાં આવેલ છે કે પરીષહ અને ઉપસર્ગથી એઓ વિચલિત થતા નહી તેમજ કષાય આદિ આત્માના વિકારી ભાવે ને એ બહુજ દૂર રાખતા હતા. આ સર્વ विरे। अमना पासे मातi सयभीत थता ता 'घोरवत' तथा दुश्व२ समना प्रतीसभ्यत्व तो ता. 'धारगुण'-भूखा २ मेमना गुडता ते भन्यो। વડે દુરનુચર હતા ઘેરતપસ્વી એઓ એટલા માટે હતા કે એ કઠણ માં કઠણ તપની આરાધનામાં તલ્લીન હતા એઓ ઘોર બ્રહ્મચર્યવાસી એટલા માટે હતા કે બીજા અલ્પસર્વ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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