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________________ २३६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे संस्थितः - उचिताकारयुक्तः, अत एव प्रशस्तः शोभनः हनुः कपोलाघोभागो यासां तास्तथा, 'दाडिमपुप्फ पगासपीवर पलबकुचियवराधराओ' दाडिमपुष्पप्रकाश पीवर प्रलम्बकुचितवराधराः - दाडिमपुष्पवत् प्रकाशो यस्य सः दाडिमपुष्पप्रकाशः दाडिमपुष्पवद् रक्तः पीवरः पुष्टः प्रलम्बः- पूर्वोष्ठापेक्षया ईषल्लम्बमानः कुञ्चितः - ईषद् वलितः अत एव वरः श्रेष्ठः अधरः - अधस्तनोष्ठो यासां तास्तथा, सुंदरुत्तरोट्ठाओ, सुन्दरोत्तरोष्ठयः- शोभनोपरितनोष्ठयुक्ताः, तथा' दहि दगरयचंद कुंदवासंतिमउयधवल अच्छिदविमलदसणाओ' दधिदकरजश्चन्द्र वासंतीमुकुलधवलाच्छिद्रदशनाः- दधि प्रसिद्धं दकरजः जलकणः चन्द्रः प्रसिद्धः, कुन्द - कुन्दपुष्पं, वासन्ती मुकुलं वासन्तीकलिका, तद्वद्धवला :- शुभ्रास्तथा, अच्छिद्रा:अविरला दशना: - दन्ताः यासां तास्तथा, तथा 'रत्तुप्पलपत्त मउयमुकुमाल तालु जीहाओ' रक्तोत्पल पत्र मृदुकसुकुमार तालुजिद्दा: - रक्तोत्पलस्य पत्रं 'पांखडी इति प्रसिद्धं, तद्वद रक्तं मृदुसुकुमारम्= अति कोमल तालुजिह्वं = तालु जिह्वा च यासां तास्तथा, तथा 'कवीरमउलकुडिल अब्भुग्गय उज्जुतुंगणासाओ, करवीर मुकुलाकुटिलाभ्युद्गतऋजुतुङ्गनासा:- करवीर : 'कनेर इति भाषा प्रसिद्धो वृक्षविशेषः, तस्य मुकुलवत् कलिका सदृशी अ कुटिला :- अजिह्मा सती अभ्युद्गना श्रद्वय मध्यविनिर्गता, ऋज्वी सरला तुङ्गा उच्चा न तु - ---- "दाडिमपुपगापीवरपलंबकुंचियवराधराओ" इनका जो अधरोष्ठ होता है, वह दाडिम के पुष्प की तरह प्रकाशवाला होता है, अर्थात् अनार के पुष्प के जैसा लाल होता है, पुष्ट होता है, और ऊपर के होठ की अपेक्षा कुछ २ लम्बा होता है तथा वह कुंचित--नीचे की ओर कुछ २ झुका सा हुआ रहता है, अत एव वह बड़ा श्रेष्ठ होता है, "सुंदरुत्तरोट्टयाओ दहिदगरयचं - दकुंदवासंतिमउलधवल अच्छिदविमलद सणाओ " तथा ऊपर का जो इनका होठ होता है वह बहुत सुन्दर होता है इनके जो दांत हैं वे दहि, जलकण, चन्द्र, कुन्दपुष्प और वासन्तीकली के जैसे अत्यन्त धवलवर्णवाले होते हैं, इनके बीच में छिद्र नहीं होता है ये ऐसे अविरल होते हैं, और विमल-मलरहित होते है, "रत्तुप्पलपत्तमउय मुकुमालतालुजीहाओ, कणवोरम उलकुडिल अभुग्गय उज्जुतुंगणासाओ, सारयणवकमलकुमुय कुवलयविमलदलणियर सरिसलक्खणपसत्थ अजिह्मपुष्पगास पीवर पलंबकुंचियवराधराओ” खेमना ? अधरेष्ठ होय छे ते हाडभना પુષ્પની જેમ પ્રકાશયુકત હેય છે. એટલે કે દાડમના પુષ્પ જેવા લાલ હોય છે પુષ્ટ હોય છે. અને ઉપરના એષ કરતાં કંઈક લાંબે હોય છે તેમજ તે કુચિત નીચેની તરફ સહેજ नम्र थयेस होय छे. मेथी ते पूजन श्रेष्ठ होय छे. "सुन्दरुत्तरोटूठयामो दहिदगरय चंद कुदवासंति मउलधवलअच्छिद्द विमलदसणाओ" तेभन उपरनो ने खेमने। गोष्ठ होय छे ते બહુજ સુંદર હાય છે. એમના દાંત દહી જલકણ ચન્દ્ર કુન્દ પુષ્પ અને વાસન્તીની કળી જેવા અતીવ શ્વેત વ વાળા હેાય છે. એમની મધ્યમાં છિદ્ર હેતા નથી એ અવિરલ હોય છે અને विभस भज रहित होय छे. "तुत्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहाओ कणवीर मउलकुडिलअभुग य उज्जुतुरंग णासाओ, सारयणवकमलकुमुय कुवलयविमलदलनियरसरिस लक्खण જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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