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________________ प्रकाशिका टोका द्वि. वक्षस्कार सू. २४ सुषमसुषमाभाविमनुष्यस्वरूपनिरूपणम् २३५ बग:-उत्तमा अंगुल्यो यासां तास्तथा, 'णिद्धपाणि रेहा' स्निग्धपाणिरेखा:-चिक्कणहस्तरेखावत्यइत्यर्थः 'रविससिसंखचक्कसोत्थिय सुविभत्तसुविरइयपाणिरेहाओ' रविशशिशलचक्रस्वस्तिक सुविभक्तसुविरचितपाणिरेखा:-रविशशिशलचक्रस्वस्तिक एव सुविभक्ताः सुस्प शः सुविरचिताः सुनिर्मिताः पाणिरेखाः हस्तरेखा यासांतास्तथा, 'पीणुण्णयकरकक्खवत्थिपएसा' पीनोन्नतकरकक्षवक्षोवस्तिप्रदेशाः पोना:-पुष्टाः अत एव उन्नता:-अभ्युन्नति प्राप्ताः प्रशस्ता कर कक्षवक्षोबस्तिप्रदेशाः करकक्षः भुजमूले वक्षो-हृदयं वस्तिपदेशाः-गुखप्रदेशश्च यासां तास्तथा, तथा 'पडिपुण्णगलकपोला' प्रतिपूर्णगलकपोलाः प्रतिपूर्णाः प. रिपुष्टा गलकपोलाः गल:-कण्ठः कपोलौ च यासां ताः, तथा चउरंगुल सुप्पमाण कबुवरसरिसगीवाओ' चतुरङ्गुलमुपमाण-कम्बुवर सदृशग्रीवाः चतुरंगुला-चतुरङ्गुलप्रमाणा अत एव सुप्रमाणा-उचितप्रमाणयुक्ता कम्बुवरसदृशी श्रेष्ठशलसमाना रेखात्रययुक्ता ग्रीवा यासां तास्तथा; 'मसलसठियपसत्थहणुगाओ मांसलसंस्थितप्रशस्तहनुकाः मांसलः-परिपुष्टः पाणिलेहाओ" इनके नखों का वर्ण ताम्र होता है इनके हाथों के अग्रभाग मांसल-पुष्ट होते है, इनके हाथों की अंगुलियां पीवर-पुष्ट होती है कोमल होती है और उत्तम होती है । ये स्त्रियां चिकनी हस्तरेखावालो होती हैं, इनके हाथों में रवि, शशि, शङ्ख, चक्र एवं स्वस्तिक, की रेखाएं होती है और ये रेखाएँ वहां सुस्पष्ट होती हैं । “पीगुण्णयकरकक्ववस्थिपएसा" इनका कक्षप्रदेश, वक्षस्थल, और वस्तिप्रदेश-गुह्यप्रदेश-ये सब पुष्ट होते हैं उन्नत होते हैं एवं प्रशस्त होते हैं। "पडिपुण्णगलकपोला" इनके गाल और कण्ठ ये दोनों प्रतिपूर्ण-भरे हुए होते हैं पिचके नहीं होते हैं "चउरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवाओ" इनकी जो ग्रीवा होती है वह चतुरंगुलप्रमाणवाली होती है और इससे वह सुप्रमाणोपेत मानी जाती हैं, तथा जैसा श्रेष्ठ शल होता है वैसी वह होती है अर्थात् रेखात्रय से सहित होती है, ''मंसलसंठियपसत्थहणुगाओ" इनके कपोल का अधोभाग-हनु-मांसल होता है, उचितसंस्था नवाला होता है, अतएव वह प्रशस्त होता વર-સુપુષ્ટ હોય છે કમળકેય અને ઉત્તમ હોય છે, એ સ્ત્રીઓ સુચિકવાણા હસ્તરેખાઓ વાળી હોય છે. એમના હાથમાં રવિ શશી શંખ ચક્ર અને સ્વરિતકની રેખાઓ હોય છે. અને એ रेमा। त्यां सुस्पष्ट डाय छ, “पीणुण्णयकरकक्खवत्थिप्पएसा" मना ४क्ष प्रदेश पक्षસ્થળ અને વસ્તિપ્રદેશ-ગુહ્ય પ્રદેશ એ સર્વે પુષ્ટ હે છે, ઉન્નત હોય છે તેમજ પ્રશસ્ત आय 2. “पडिपुण्णगलकपोला" अमना पास भने ४ मे पन्ने प्रति पूर्ण परिपुष्ट सु२ डाय छे. ४२ 4जी गये। उता नथी. चउरंगुलप्पमाणकंबुवरसरिसगीवाओ" मेमनी જે ગ્રીવા હોય છે તે ચતુરંગુલ પ્રમાણવાળી હોય છે અને એથી જ તે સુપ્રમાણપતમાનવામાં આવી છે. તથા જે શ્રેષ્ટ શંખ હોય છે. તેવી જ તે શ્રેષ્ઠ હોય છે, એટલે કે मात्रयथी युत डाय छे. "मसल संठीअ पसत्थ हणुगाओ" मेमना पसिना माँ माग हैनु मांसद डाय छे. अयित संस्थान युति डाय छ, मेथी ते प्रशस्त डाय छे. "दाडिम જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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