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________________ ११४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे रचनया चित्रम् अद्भुतम् तथा 'कंचणम णिरयणधूभियाए' काञ्चनमणिरत्नं स्तूपिकाकंकाञ्चनं सुवर्ण मणिः- मरकतादिः - रत्नं वैडूर्यादि तन्मयी स्तू पका यस्य तत्तथा पुनः कीदृशम् : ' णाणाबिह पंच०' नानाविधपञ्चवर्णमणिभिः - अनेकजातीय कृष्णादिवर्णमणिमिः उपशोभितम् - अलंकृतम् । तत्र मणीनां वर्णगन्धरसस्पर्शानां 'वण्णओ' वर्णकः वर्णनपर : पदसमूहः प्राग्वत् । तथा 'घंटापडागपरिमंडियग्गसिहरे' घण्टापताकापरिमण्डितान शिखरं घण्टाभिः पताकाभिश्व परिमण्डितम् सुशोभितम् अग्रशिखरम् उपरितनभागो यस्य तत् तथा 'घवले' धवलं - शुक्लवर्णम् 'मरीइकवयं' मरीचिकवचं किरणसमूह परिक्षेपं 'विणिम्मुयंते' विनिर्मुञ्चत् निःसारयत् तथा ' लाउल्लोइयमहिए' लायितोल्लायितमहितं -लायितं - गोमयादिना भूम्युपलेपनम् उल्लायितं सेटिकादिभि:(श्वेतमृत्तिकादिभिः) कुड्यसमूहस्य संमृष्टीकरणम् आभ्यां महितं परिष्कृतमिव तथा 'जाव झया' यावद् ध्वजाः इति । लायितोल्लायितमहितमित्यनन्तरं 'ध्वजाः' इत्यतः लता कमलिनो इन सबके चित्र बने है. इससे वह सिद्धायतन अद्भुत जैसा प्रतीत होता है। 'कं चणमणि रयणभियाए, णाणा विहपंच व्वण्णओ, घंटापडाग परिमंडियग्गसिहरे घवले मरीइकवयं विणिम्यं ते " कंचन - सुवर्ण, मरकत आदि मणि और वैडूर्य आदि रत्न इनसे उसकी शिखर बनी हुई है अनेक प्रकार के कृष्णादि वर्णोपेत मणियों से वह सिद्धायतन सुशोभित है यहां मणियों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शों का वर्णन परक पद समूह जैसा पहले कहा गया है - वैसा ही वह यहां पर भी कह लेना चाहिये. इसका अग्रशिखर- उपरितनभाग घण्टा और पताकाओं से परिमंडित है यह सिद्धायतन धवल है. तथा किरणों के समुदाय की प्रभाजाल को प्रति समय छोड़ता रहता है “ला उल्लोइय ० " इसकी भित्तियां सेटिकादि से चूने की कली आदि सेपुती हुई हैं और जमीन इसकी गोमयादि से लिप्त रहती है- इससे यह बड़ा ही सुहावना लगता है, "जाव झया" यावत् ध्वजाएँ इसके ऊपर फहराती रहती हैं यहां यावत्पद से जिन " તેમજ પદ્મક્ષતા કમલિની આ સર્વાંના ચિત્રો ખનેલા છે. એથી આ સિદ્ધાયતન અદભુત नेवु लागे छे 'कंवणमणिरयणभूमियाए णाणाविहपंच० वण्णओ, घंटा पडागपरिमंडियगहिरे धवले मरीइकवयं विणिम्यते" अयन सुवर्श भरत वगेरे मणि आदि वैडूर्य આદિ રત્નાથી તેનું શિખર બનેલું છે. અનેક પ્રકારના કૃષ્ણાદિ વર્ણોપેત મણીએથી તે સિદ્ધાયતન સુÀાભિત છે અહી મણિએના વણુ, ગન્ધ, રસ અને સ્પર્શના વણુન સંબંધી પદસમૂહ જેમ પહેલા કહેવામાં આવેલ છે તેમ સમજી લેવા જોઈએ. આનુ અગ્રશિખર ઉપરિતન ભાગ ઘંટા અને પતાકાએથી પરિમ’ડિત છે. આ સિદ્ધાયતન ધવલ छे ते खान दिश्शू समूहोने प्रभासने प्रतिसमय अमृत १२तु रहे छे. " लाउल्लोइयु० ' આની દિવાલેા સેટિકાદિથી-ચૂના વગેરેથી ઘેાળેલી રહે છે અને એની જમીન ગામયાદિથી लिप्त रहे छे मेथीमा भूमन रजियामाणु सागे छे 'जाव झया' यावत् व લહેરાતી રહે છે. અહીં યાવપદથી જે પસંગૃહીત થયેલ છે. તે પદોનું જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર शेनी पर વિવરણ યમિકા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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