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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथाभियोग्यश्रेणिद्वयस्याकारभावप्रत्यवतारं पृच्छति 'आभिओगसेढीणं' इत्यादि । 'आभिओगसेढीणं भंते ! केरिसए आयाग्भावपडोयारे पण्णत्ते' हे भदन्त अभियोगश्रेण्याः कीदृशकः कीदृशः आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञसः ? भगवागाह-'गोयमा बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' हे गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः 'जाव तणेहिं उवसोभिए' यावत् तृणैरूपशोभितो 'वण्णाइं जाव तणाणं सद्दो त्ति' वर्णा यावतृणानां शब्द इति । अत्र यावत्पदसंग्रालः पदसमूडो राजप्रश्रीयसूत्रस्य पञ्चदशसात्रादारभ्य एकोनविंशतितमशुत्रतो चोध्यः । अर्थोऽपि तत्रैवमत्कृत सुवोधिनी टीकातोऽवसेय इति । 'तासि णं' तयोः पूर्वोक्ताो खलु 'अभिओगसेढीणं' आभियोग्पत्रेण्योः 'तत्थ तत्थ' तत्र तत्र तस्मिंस्तस्मिन् 'देसे' देशे भागे, 'तहि तहि' तत्र तत्र तत्तद्देशस्यावान्तरदेशे 'बहवे वाणमंतरा' बहवो ब्यन्तराः देव विशेषाः देवा य देवीओ य आसयंति' देवाश्च देव्यश्च आसते-यथासुखं सामान्यतस्तिष्ठन्ति, 'सयंति' शेरते सर्वथा कायप्रसारणेन वर्तन्ते न तु निद्रान्ति, देवानां निद्राया अभावात 'जाव' याव प्रत्यवतार-स्वरूप कैसा कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहतेहैं 'बहु समरमणीओ भूमिभागो पण्णत्तो" हे गौतम ! इन दोनों श्रेणियों का भूमिभाग बहुसम है और इसीसे वह बहुत ही रमणीय कहा गयाहै. क्योंकि वह तृणों से और मणियों से उपशोभित है. ये तृण मणियां वहां कृत्रिम भी हैं और अकृत्रिम भी है । यहां यावत्पद से संग्राह्य पद समूह राजप्रश्नीय सूत्रके १५वे सूत्र से लेकर १९वें तक के सूत्रसे जान लेना चाहिये। उनका अर्थ हमने उसकी सुबोधिनी टीका में स्पष्ट कर लिख दिया है। वहां उनके वर्णी का और उनके शब्दों का भी सद्भाव प्रकट किया है । "तासिणं आभिओगसेढीणं तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ आसयंति, सयंति, जाव फल वित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति" इन पूर्वोक्त आभियोग्यश्रेणियों के उन २ स्थानों पर अनेक वानव्यन्तर देव और देवियां यथासुख उठती बैठती रहती हैं, शरीर को पसार कर आराम करती रहती हैं, सपास भी प्रभु छ "बहुसमरमणीओ भूमिभागो पण्णत्तो' हे गौतम ! सन्न श्रेणीએને ભૂમિભાગ બહુ સમ છે અને બેથી જ તે બહુજ રમણીય છે કેમકે તે તૃણોથી અને મણિઓથી ઉપરોભિત છે. એ તૃણ મણિએ ત્યાં કૃત્રિમ પણ છે અને અકૃત્રિમ પણ છે. साड़ी यावत्" ५४थी साह ५६ सभू राप्रश्नीय सूत्रना १५ मा सूत्रथा १८ मां सूत्र સધી જાણો જોઈએ. આ બધા પદસમૂહની વ્યાખ્યા તેની સુધિની ટીકામાં સ્પષ્ટ કરી छ. त्यातमना पतिम श होने। सहला प्र४८ ४२वामां आवे छे. "तासिण आभि ओगढीण तत्थ तत्थ देसे तहिं तर्हि वहने वाणमंतरा देवा य देवीओ आसयंति, सयंति जाप फलचित्तिविसेसं पच्च गुब्भवमाणा विहरंति" मा पूर्वरित मालिया श्रेणीमाना સ્થાપર અનેક વા ન થ તર દેવ દેવીઓ સુખપૂર્વક ઉઠતા-બેસતા રહે છે, શરીરને પકૃત કરીને આરામ કરતા રહે છે, નિદ્રાધીન થતા રહે છે કેમકે દેવને નિદ્રા આવતી નથી. જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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