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________________ प्रकाशिका टीका सू० १४ आभियोग्यश्रेणिद्वयनिरूपणम् णिज्जा श्रे भूमिभागाओ वेयड्ढस्स पव्वयस्स' विद्याधरश्रेण्योः बहुसमरमणीयात् , भूमिभागात् वैताब्यस्य पर्वतस्य 'उभो' उभयोः-द्वयोः ‘पासिं' पार्श्वयोः 'दसजोयणाई' दश योजनानि 'उइद' ऊर्ध्वम्-उपरि 'उप्पइत्ता' उत्पत्य गत्वा 'एत्थणे दुवे अभि ओग सेढीओ' अत्र इह द्वे आभियोग्यश्रेण्यौ आ समन्तात् आभिमुख्येन युज्यन्ते प्रेष्यकमणि व्यापार्यन्त इत्याभियोग्याः शक्र लोकपालानां किङ्करा व्यन्तरविशेषाः तेषां श्रेण्यौ आवासपङ्क्ती 'पण्णताओ' प्रज्ञप्ते- कथिते ते च, कीदृश्यौ ! इति जिज्ञासायामाह 'पाईणपडीणययाओ' प्राचीन प्रतीचीनाऽऽयते पूर्वपश्चिमयोदिशोरायते दीर्धे 'उदीणदाहिणवित्थिण्णाओ' उदीचीन दक्षिण विस्तीर्णे उत्तरदक्षिणदिशोविस्तीर्णे विस्तारयूक्ते, 'दस दस जोयणाई विक्खंभेणं' दश दश योजनानि विष्कम्भेण-विस्तारेण, 'पव्वयसमियाओ' पर्वतसमिके पर्वततुल्ये 'आयामेणं' आयामेन दैर्पण, तथा 'उभओ' उभयोः-द्वयोः 'पासिं' पोर्खयोः ‘दोहिं' द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च 'वण संडेहिं संपरिक्खित्ताओ' वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ते परिवेष्टिते । 'वण्णओ' वर्णकःवर्णनपरो वाक्यसमूहो 'दोहवि' द्वयोरपि द्वयोरिति जात्यापेक्षया प्रोक्तं, तेन द्वयोः पद्मवरवेदिकयोः द्वयोर्वनषण्डयोरितिचतुणी पूर्ववद् बोध्यः । तथा-चत्वारोऽप्येते पद्मवरवेदिकावनषण्डा 'आयामेणं' आयामेन-दैर्येण 'पव्वयसमियाओ' पर्वतसमकाः पर्वतनुल्या बोध्या इति । भागों में दश दश योजन ऊपर जाकर दो अभियोग्य श्रेणियां कही गई है शक एवं लोकपालो के किङ्करभूत जो व्यन्तर देवविशेष है उनको ये निवास भूत श्रेणियां हैं "प्राचीन प्रतीचीनायते ये दोनों पूर्वपश्चिम में लम्बी है "उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णे" उत्तर दिशा और दक्षिणदिशा में चौडी है इनका विस्तार दश दश योजन का है “पर्वत समिके" तथा पर्वत की लम्बाई के बराबर इनको लम्बाई है। तथा ये अपने दोनो पार्श्वभाग में दो पद्मवर वेदिकाओं से एवं दो वनषण्डों से परिवेष्टित हैं। इस ४ पद्मवरवेदिकाएँ और चार वनखण्ड इनके दोनों पार्श्वभागों की ओर हैं । ये चारो पद्मवरवेदिकाएँ और वनषण्ड लम्बाई में पर्वत के तुल्य हैं । "आभिओगसेढीणं" हे भदन्त ! इन आभियोग श्रेणियों का आकारभाव ભાગોમાં દશ દશ જન ઉપર જઈને બે આભિયોગ્ય શ્રેણીઓ છે. શક અને લોકપાલેના કિંકરतर व्यत व विशेष छ, तेमनी मा निवासभूत श्रेणीमा छ. "प्राचीनप्रतीचीनायना' से थे। सन्न ५१ पश्चिममा aisी छ "उदीचीनदक्षिण विस्तीर्णा उत्तर दिशा मने दक्षिामा याही छ. सभने। विस्तार ६श-४श यानरत छ. "पर्वत समिके" तेम ५ तनी જેટલી એમની લંબાઈ છે. તથા એ છે અને પાશ્વભાગમાં બે પાવર વેદકાઓથી તેમજ બે વનખંડોથી પરિવેષ્ઠિત છે. એ જ પદ્મવરદિકાઓ અને ચાર વનખંડો એમની બન્ને બાજુએ छ. से यारे ५१२वामा भने वनोनी सा पततुल्य छे. "अभिओगसेढीणं" હે ભદન્ત ! આ આભિગ શ્રેણિએને આકારભાવપ્રત્યવતાર (સ્વરૂ૫) કેવો છે ? એના જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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