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________________ सूर्यप्तिप्रकाशिका टीका सू० १०० एकोनविंशतितमप्राभृतम् हिए परिक्खेवेणं आहिएत्ति वएज्जा' तावत् कालोदनः खलु समुद्रः अष्टौ योजनशतसहस्राणि -अष्टौ लक्षाणि (८०००००) चक्रवालविष्कम्भेन प्रज्ञप्तः, तथा एकनवति योजनशतसहस्राणि -(९१०००००) सप्ततिश्च सहस्राणि (७००००) षट् च पञ्चोत्तराणि योजनशतानि-पञ्चोत्तराणि षट्शतानि योजनानां (६०५) किंचित् विशेषाधिकेन ९१७०६०५ एतत् तुल्येन किञ्चिन्यूनाधिकेन परिक्षेपेण-परिधिना आख्यात इति वदेत् , अत्र परिक्षेपगणितभावना इत्थं वर्तते-कालोदनसमुद्रस्य एकतोऽपि चक्रवालतया विष्कम्भोऽष्टौ योजनलक्षाः अपरतोऽपीति षोडशलक्षाः भवन्ति, तथा धातकीखण्डस्य एकतोऽपि चतस्रो लक्षा अपरतोऽपीति-अष्टौलक्षाः। लवणसमुद्रस्य एकतोऽपि द्वे लक्षे अपरतोऽपीति चतस्रो लक्षा, एवं च एका लक्षा जम्बूद्वीपस्येति सर्वसंख्यया एकोनत्रिंशल्लक्षाः-२९००००० एतेषां वर्गकरणेन (८४१जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं आहिएत्ति वएजा) कालोदधि समुद्र आठ लाख योजन (८००००) का चक्रवाल विष्कंभ वाला प्रज्ञप्त किया है, तथा इक्काणवें लाख ९१०००००। सत्तर हजार ७००००। छसो पांच ६०५। योजन से कुछ विशेषाधिक ९१७०६०५। इस से कुछ न्यूनाधिक परिधि वाला कहा है ऐसा स्वशिष्यों को कहें। यहां पर परिक्षेप की गणित्तभावना इस प्रकार से होती है-कालोदधि समुद्र एक तरफ चक्रवाल विष्कम्भ से आठ लाख योजन है तथा दूसरी तरफ भी आठ लाख योजन का है इस प्रकार सोलह लाख योजन का विष्कंभ होता हैं। तथा धातकी खंड का एक तरफ का चक्रवाल विष्कंभ चार लाख योजन का है, एवं दूसरी तरफ का भी इतना ही है अतः, आठ लाख योजन का विष्कंभ होता है। लवण समुद्र का एक बाजु का दो लाख एवं दूसरी ओर का भी दो लाख मिलकर चार लाख योजन का होता है। तथा एकलाख योजन जंबूद्वीप का होता है । इस प्रकार ये सब को मिलाने से उन्तीस लाख २९००००० । योजन होते हैं। इस का वर्ग करने सेકાલેદધિ સમુદ્ર આઠલાખ જન ૮૦૦૦૦ ના ચકવાલ વિષ્ક્રભવાલે પ્રજ્ઞપ્ત કરેલ છે. તથા એક લાખ ૯૧૦૦૦૦ સિત્તેરહજાર ૭૦૦૦૦ છસો પાંચ ૬૦ પાયેજનથી કંઈક વધારે ૯૧૭૦૬૦૫ આનાથી કંઈક વત્તાઓછી પરિધિવાળે કરેલ છે. એ પ્રમાણે સ્વશિષ્યોને કહેવું. અહીં પક્ષેિપની ગણિત ભાવના આ પ્રમાણે થાય છે–કાલે દધિસમુદ્ર એક તરફ ચકવાલ વિધ્વંભથી આઠલાખ એજનનો છે. તથા બીજી તરફ પણ આઠલાખ જનને છે. આ રીતે મેળલાખ એજનને વિષંભ થાય છે. તથા ધાતકી ખંડની એક તરફ ચક્રવાલવિઝંભ ચારલાખ એજનનો છે. અને બીજી તરફને પણ એટલું જ છે. તેથી આઠલાખ જનને વિષંભ થાય છે. લવણ સમુદ્રની એક બાજુને બેલાખ અને બીજી બાજુના લાખ મળીને ચાલાખ જનને થાય છે. તથા એકલાખ જન જંબુદ્વીપને હોય છે. આ રીતે આ બધાને મેળવવાથી ઓગણવીસલાખ ૨૯૦૦૦૦૦ એજન થાય છે. શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: 2
SR No.006352
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1982
Total Pages1111
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size77 MB
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