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________________ सूयज्ञप्तिप्रकाशिका टीका सू० ९७ अष्टादश प्राभृतम् गीतवादित्रतन्त्रीतलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जमाणे विहां केवलं परिवारऋद्धयर्थ न चैव खलु मैथुनवृत्तितया ।।-अत्र महतारवेणेति योगोऽस्ति, 'आहयत्ति'-आख्यानक प्रसिद्धानीतिवृद्धाः, अथवा आहतानि-अव्याहता-निरन्तराणि नाटय गीतवादित्राणि एवं च तन्त्री-वीणा, तलताला:-हस्तताला:-हस्तध्वनयः, त्रुटितानि- शेषतूर्याणि, तथा च घन:-धनाकार:-गम्भीरोध्वनि सामर्थ्यात् यो मृदङ्गो भमर्दलः, पटुनाभिज्ञेन-दक्षपुरुषेण प्रवादित:-तालबद्धतलताले नाहतः, तेषां यो रवः-समुद्भूतघनशब्दस्तेन महता रवेणेत्यर्थः प्रथमेन सहयोज्यः (सर्वेषां पदानां द्वन्द्व समासत्वात् ) अतस्तेन तुमुलशब्देन सह दिव्यान्-दिविभवान् दिव्यान्-अतिप्रधानान्-अलौकिकान् भोगभोगान्भोगार्हा ये भोगाः-शब्दादयः कर्णेन्द्रियतृप्तिकरास्तान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहत्तुं प्रभुरितियोगः, न पुनर्मैथुनप्रत्ययं-मैथुननिमित्त-सामान्यजनभोग्यं स्पर्शादिसुखभोगं भुञ्जानो विहाँ प्रभुरिति ॥___ अथ सूर्यसम्बन्धि प्रश्नसूत्रमाह-'ता सूरस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कई अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ' तावत् सूर्यस्थ खलु ज्योतिपेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य कति अग्रसहिष्यः यहां पर (महतारवेण) इस का योग है (आहयति) आख्यानक प्रसिद्ध अथवा अव्याहत अर्थात् निरंतर नाटय गीतवादिन तथा तंत्री-वीणा तलताल-हस्तध्वनी त्रुटित तथा घनाकार गम्भीर ध्वनि अर्थात् मृदंग आदि को पटु-दक्ष ऐसे पुरुष द्वारा बजाये तालबद्ध हस्त ताल से ताडित उनका जो उदभूत शब्द उस प्रकार के महान् ध्वनि से युक्त (सर्व पदों का रूंद समास होता है) दिव्यअलौकिक भोगने योग्य जो भोग कर्णेन्द्रिय तृप्ति जनक शब्दादि भोगभोगों को भोग कर विहरने में समर्थ होता है । परंतु मैथुन निमित्त सामान्य जन भोग्य स्पर्शादि भोगों को भोगने में समर्थ नहीं होता है। अब सूर्य संबंधी प्रश्न सूत्र कहते हैं-(ता सूरस्स णं जोइसिंदस्स जोइसमाणे विहरित्तए केवल परियारणिढिए, णो चेव ण मेहुणवित्तियाए) मडी (महतारवेण) याने। यो। छे. (आयति) आध्यान प्रसिद्ध अथवा २५व्यात अर्थात् नि२ त२ नाटय गीत વાજિત્ર તથા તંત્રી–વીણ તલતાલ-હસ્તધ્વનિ ત્રુટિત તથા ઘનાકાર ગંભીર ઇવનિ અર્થાત્ મૃદંગ વિગેરેને પટુ-દક્ષ એવા પુરૂષ દ્વારા વગાડેલ તાલબદ્ધ હસ્તકાલથી તાડિત તેનાથી ઉત્પન થયેલ જે શબ્દ તે પ્રકારના મહાન ધ્વનિથી યુકત (આ બધા પદનેહંદસમાસ થાય છે) દિવ્ય અલૌકિક ભોગવવા લાયક જે ભોગે કણેન્દ્રિય તૃપ્તિજનક શબ્દાદિ ભાગ ભેગોને ભોગવીને વિચારવામાં સમર્થ હોય છે. પરંતુ મિથુન નિમિત્ત સામાન્યજન ભાગ્ય સ્પર્શાદિ ભેગેને ભેળવવામાં સમર્થથતા નથી. वे सूर्य समधी प्रश्नसूत्र ४ छ.-(ता सूरस्स ण जोइसिंदरस जोइसरण्णो कद् શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર:
SR No.006352
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1982
Total Pages1111
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size77 MB
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