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________________ सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिका टीका सू० ४५ दशमलाभृतस्य दशमं प्राभृतप्राभृतम् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । इति एतगेश्छायाप्रकारोऽर्थः स्पष्टतया पूर्व प्रतिपादित एव । एतदेव च सूर्यमण्डलस्य चन्द्रमण्डलस्य च स्वस्वमण्डलविष्कम्भपरिमाणयुक्तं सूर्यस्य चन्द्रमसश्च विष्कम्भपरिमाणमवसेयं, तथाचोक्तं तत्रैव जम्बूप्रज्ञप्तौ 'सूरविकंपो एको समंडला होइ मंडलंतरिया। चंदविकम्पो य तहा समंडला मंडलंतरिया ॥१॥ अस्याः गाथायाः अक्षरगमनिका यथा--एकः सूर्यविकम्पो भवति ‘मंडलं तय' अन्तरमेव आन्तर्य (भेषजादित्वात स्वार्थे यण ततः स्त्रीत्वविवक्षायां डी प्रत्यये आन्तरी आन्तर्येव आन्तरिका) मण्डलस्य मण्डलस्यान्तरिका मण्डलान्तरिका 'समंडल' त्ति इह मण्डलशब्देन मण्डलविष्कम्भ उच्यते परिमाणे परिमाणवत उपचारात् । ततः सहमण्डलेन मण्डलविष्कम्भपरिमाणेन परिमाणेन साठ के एक भाग का सात भाग कर के चार चूर्णि का भाग शेष रहे इतना अंतर एक चन्द्रमंडल से दूसरा चन्द्रमंडल का अबाधा से प्रतिपादित होता है। यह सामान्य छाया रूप अर्थ कहा है। स्पष्ट रूप से तो पहले कह ही दिया है । यही सूर्य मंडल का एवं चन्द्रमंडल का अपने अपने विष्कम्भ परिमाण युक्त सूर्य एवं चन्द्र का विष्कम्भ परिमाण समज लेवें। उसी जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में कहा भी है-(सूरविकंपो एक्को समंडला होइ मंडलंतरिया। चंद विकम्पो य तहा समंडला मंडलंतरिया ॥१॥ इस गाथा का अक्षरार्थ इस प्रकार से हैंएक ही सूर्य विकंप होता है (मंडलंतरिया) अंतर को ही आन्तर्य कहते हैं। यहां पर भेषजादित्वात् स्वार्थ में यण प्रत्यय हुवा है तत्पश्चात् स्त्रीलिंग विवक्षा से ङ्गी प्रत्यय करने से आन्तरी इस प्रकार होता है एवं आंतरी ही आन्तरिका मंडलमंडल की जो आंतरिका वह मंडलांतरिका कही जाती है, (समंडलत्ति) यहां पर मंडल शब्द से मंडल विष्कम्भ कहा जाता है, परिमाण में परिमाण वाले का उपचार होता है, अतः मंडल के साथ मंडलविष्कंभ के परिકરીને ચાર ચૂર્ણિકાભાગ શેષ રહે એટલું અંતર એક ચંદ્રમંડળથી બીજા ચંદ્રમંડળનું અબાધાથી પ્રતિપાદિત કરેલ છે, આ સામાન્ય રીતે અર્થ કહેલ છે, સ્પષ્ટ પણાથી તે પહેલાં કહીજ દીધેલ છે. આજ સૂર્યમંડળનું અને ચંદ્રમંડળનું પિત પિતાના વિખંભ પરિમાણ યુક્ત સૂર્ય અને ચંદ્રના વિષ્ક્રભનું પ્રમાણ સમજી લેવું એજ જંબૂદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિમાં કહ્યું ५५ छ.-(सूरविक पो एक्को समंडला होइ मंडलंतरिया चंदविकम्पो य तहा समंडला मंडलतरिया ॥१॥ २0 थानो अक्षराथ 21 प्रमाणे -४०४ सूर्य १४५ थाय छे. (मंडल तरिया) सतरने मातय ४९ छे. मडीया (भेषजादित्वात् ) से सूत्रथा स्वाथ मां या પ્રત્યય થયેલ છે. તે પછી સ્ત્રીલિંગની વિવક્ષાથી ની પ્રત્યય કરવાથી આંતરી એ પ્રમાણે થાય છે. અને આંતરી એ જ આંતરિક, મંડળ મંડળની જે આંતરિકા તે મંડલાन्त२ि४ उपाय छे. (समंडलत्ति) माडी या मा ५४थी भविष्म डेस छे. परिभाણમાં પરિમાણવાળાને ઉપચાર થાય છે. તેથી મંડળની સાથે મંડળવિઝંભના પરિમાણથી શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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