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________________ सूर्यज्ञतिप्रकाशिका टीका सू० ४१ दशमप्राभृतस्य अष्टमं प्राभृतप्राभृतम् ८९९ २२, य गयदंत २३, विच्छुयअलेय २४, | गयविकम्भे २५, ततो सीहानि साई य २६, संठाणा ॥ सू० ४१ ॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलित - ललितकलापालापकप्रविशुद्ध गद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दक- श्री - शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त - 'जैनशास्त्राचार्य' - पदविभूषित - कोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारी जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलाल - व्रतिविरचितायां श्री सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रस्य सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायां दशमस्य प्राभृतस्य अष्टमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ||१०-८॥ अन्त में मूलमात्र से 'गोसीसावलि' इत्यादि प्रकार से दी है सो जिज्ञासु जन वहां पर देख के समझ लेवें ॥ सू० ४१॥ श्री जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री घासीलालजी महाराज विरचित सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रकी सूर्यज्ञतिप्रकाशिका टीका में दसवें प्राभृत का आठवां प्राभृतप्राभृत समाप्त ॥ १०-८॥ भात्र३पे (गोसीसावलि) हत्याहि अअस्थी सापेक्ष छे तो लज्ञासुग्यो ते त्यां लेने सेवी || सू० ४१ ॥ શ્રી જૈનાચાર્ય –જૈનધમ દિવાકર—પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે રચેલ સૂર્ય પ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રની સૂજ્ઞપ્તિપ્રકાશિકા ટીકામાં इसभा प्रमृत आहेभु प्राकृतप्राकृत सभाप्ति ।। १२-८ ।। શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર : ૧ 卐
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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