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________________ सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिका टीका सू० १३ प्रथमयाभृते द्वितीयं प्राभृतपाभृतम् प्रकारेण ते-तव मते, उत्तरा--उत्तरदिग्भाविनी अर्द्धमण्डलसंस्थिति राख्याता--कथिता, इति वदेत्, तत्रायं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां मध्यवर्ती, यावत् परिक्षेपेणपरिधिना वर्तते । तत्र जम्बूद्वीपे यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरा मुत्तराम मण्डलसंस्थितिम् उपसक्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठा प्राप्तः--उत्कर्षक:-अधिकोऽष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, जघन्या-लध्वी द्वादशमुहर्ता रात्रि भवति, । 'जहा दाहिणा तहचेव' त्ति, यथा दक्षिणा अर्द्धमण्डलसंस्थिति:-अर्द्धमण्डलव्यवस्थानव्यवस्था पूर्व कथिता तथैव-तेनैव प्रकारेण एषाऽपि उत्तरा अर्द्वमण्डलसंस्थिति विज्ञेया। नवरम्-अयं विशेषो यथा दक्षिणार्द्धमण्डलस्थाने उत्तरार्द्धमण्डलसंस्थिति विज्ञेया । 'अभितराणंतरं' इत्यादिना, मण्डलगतिभावना यथा-सर्वाभ्यन्तरे उत्तरस्मिन्नर्द्धमण्ड ले स्थितः सन् तस्मिन्नहोरात्रे अतिक्रान्ते सति नवं टीकार्थ-अब उत्तरार्द्धमंडलसंस्थिति को जानने की इच्छावाले श्री गौतमस्वामी प्रभुश्री को प्रश्न करते हैं-(ता कहं ते) हे भगवन् आपके मत से उत्तर दिशा विषयक अर्द्धमंडलसंस्थिति किस प्रकार से कही गई है ? सो कहीये, प्रत्युत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-यह जंबूरोप नाम का द्वीप सर्वद्वीपसमुद्रों के मध्यवर्ती यावत् परिक्षेप नाम परिधि से कहा है, उस जम्बूद्वीप में जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर की उत्तर की अर्द्धमंडलसंस्थिति का उपसंक्रमण कर के गति करता है तब उत्तम काष्ठा प्राप्त-परमप्रकर्षणाप्त ऐसा अठारह मुहूर्त का दिवस होता है तथा बारह मुहूर्त की जघन्य से रात्री होती है (जहा दाहिणा तहचेव त्ति) जिस प्रकार से दक्षिणार्द्धमंडल की व्यवस्था पहले कथित की गई है उसी प्रकार से यह उत्तरार्द्ध मंडल को संस्थित भी समझ लेवें। यहां पर विशेषता यह है कि-दक्षिणार्द्धमंडल के स्थान पर उत्तरार्द्धमंडल संस्थिति कहे। (अभितराणंतरं) इत्यादि कथन से मंडलगति की भावना इस प्रकार है-सर्वाभ्यन्तर में उत्तर के अर्द्धमंडल में रह कर उस अहोरात्र समाप्त होने पर ટીકાર્ય -હવે ઉત્તરાદ્ધમંડળની સંસ્થિતિને જાણવાની ઈચ્છાવાળા શ્રી ગૌતમરવાની अनुश्रीने प्रश्न ४२ छ (ता कहं ते) त्या लावन् ! मन भतथी उत्तरहिया संधी અર્ધમંડળસંસ્થિતિ કઈ રીતે કહી છે તે મને કહો. પ્રત્યુત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે-આ જંબૂદ્વપ નામનદ્વીપ બધા દ્વીપસમુદ્રોની મધ્યવતી યાવત્ પરિક્ષેપ અર્થાત્ પરિધિથી કહેલ છે. એ જ બુદ્વીપમાં જ્યારે સૂર્ય સર્વભ્યન્તરની અર્ધમંડળ સંસ્થિતિનું ઉપસક્રમણ કરીને ગતિ કરે છે, ત્યારે પરમપ્રકર્ષ પ્રાપ્ત એ અઢાર મુહૂર્તનો દિવસ હોય છે. તથા બાર મુહૂર્તની न्य रात्री डाय छ. (जहा दाहिणा तहचेव त्ति) प्रमाणे दक्षिणाय भनी व्यवस्था પહેલાં કહી છે, એ જ પ્રમાણે ઉત્તરાર્ધમંડળની સંસ્થિતિ પણ સમજી લેવી, અહીંયા વિશેષતા એ છે કે, દક્ષિણાર્ધ મંડળના સ્થાને ઉત્તરાર્ધ મંડળ સંસ્થિતિ એમ કહેવું. (अभितराणंतरं) त्याहि थनथी भातिनी भावना २॥ शत छ-सत्यन्तरमा શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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