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________________ ४८६ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रे यद् रत्नोच्चये खलु पर्वते - तन्नामके पर्वते, रत्नानां - माणिक्यवैडूर्यादि नानाविधानाम्, उत्प्राबल्येन चयः - उपचयो यत्र स रत्नोच्चय स्तस्मिन् रत्नोच्चये खल पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता - परावर्त्तनगतिका भवतीति आख्याता - कथिता इति स्वशिष्येभ्यो वदेदिति सप्तमस्याभिप्रायः, एके एवमाहुरित्युपसंहरतीति ||७|| 'एगे पुण एवमाहंसु - सिलुच्चयंसि णं पव्वयंसि सूरियस लेस्सा पडिहया आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु ८' एके पुनरेवमाहु स्तावत् शिलोच्चये खलु पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत्, एके एवमाहुः ||८|| - एके पुनरष्टमा स्तीर्थान्तरीया एवं भाषन्ते यत् शिलोच्चये - शिलानां - पाण्डुकम्बलगैरिकादिशिलाखण्डानामुत् ऊर्ध्वं शिरसः - उपरि चयः सम्भवो यत्र स शिलोच्चयः - तन्नामकपर्वतविशेष स्तस्मिन् शिलोच्चये खलु पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता कि रत्नोच्चय नाम के पर्वत में रत्नमणि माणिक्य वैडूर्यादि अनेकविध मणियों के उत् नाम अधिकता का चय नाम उपचय जहां हो, वह रत्नोच्चय कहा जाता है उस रत्नोच्चय पर्वत में सूर्य की लेश्या प्रतिहत माने परावर्तन गतिवाली होती है ऐसा स्वशिष्यों को कहें ऐसा सातवें मतावलम्बी का अभिप्राय है कोई एक इस प्रकार कहता है इस प्रकार उपसंहार है | ७| (एगे पुण एवमाहं सिलवयंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहियत्ति वजा, एगे एवमाहंसु ) ८। कोई एक इस प्रकार से कहता है कि शिलोच्चय नामक पर्वत में सूर्य की लेश्या प्रतिहत कही है ऐसा स्वशिष्यों को कहें कोई एक इस प्रकार से कहता है || ८ | अर्थात् आठवां तीर्थान्तरीय इस प्रकार से कहता है कि शिलोच्चय अर्थात् पांडु, कम्बल, गैरिकादि शिलाखण्डों के ऊपर उपर का ढिगला का संभव जहां हो ऐसा जो शिलोच्चय माने उस नाम वाला पर्वत विशेष उस शिलोच्चय पर्वत के ऊपर सूर्य की लेश्या प्रतिहत होती है ऐसा स्वशिष्यों को उपदेश करे कोई एक इस प्रकार कहते है પતમાં સૂર્યંની લેશ્યા પ્રતિહત અર્થાત્ પરાન ગતિવાળી થાય છે એ પ્રમાણે શિષ્યાને કહેવું આ પ્રમાણે સાતમ! મતાવલંબીને! અભિપ્રાય છે. કોઈ એક આ પ્રમાણે પેાતાને अभिप्राय हे छे. 1७1 ( एगे पुण एवमाहंसु सिलुच्चयंसि णं पञ्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिया आहितात्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु ) अर्ध मे भेवी रीते आहे छे शिदोभ्यय નામના પર્વતમાં સૂર્યની લેશ્યા પ્રતિહત થતી કહી છે. એમ સ્વશિષ્પાને કહેવું. કોઈ એક આ પ્રમાણે કહે છે, અર્થાત્ આઠમે તીર્થાન્તરીય આ પ્રમાણે કહે છે કે-શિલેશ્ચય એટલે કે પાંડુક બલ ઐરિકાદિ શિલાખડાની ઉપર ઉપરના ઢગલાને જ્યાં સંભવ હેાય એવા જે શિલેાશ્ર્ચય એટલે કે-એ નામના પર્વત વિશેષ એ શિલેાશ્ર્ચય પર્વતની ઉપર સૂર્યંની લેશ્યા પ્રતિહિત થાય છે એ પ્રમાણે શિષ્યાને ઉપદેશ આપવા કોઇ એક આ શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર : ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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