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________________ सूर्यशप्तिप्रकाशिका टोका सू० २६ पञ्चमं प्राभृतम ४८५ एवमासु ६' एके पुनरेव माहुस्तावद् गिरिराजे खलु पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत्, एके एवमाहुः ॥६॥ एके पुनः षष्ठास्तीर्थान्तरीया एवं कथयन्तियद गिरिराजे, सर्वेषामपि तीर्थकराणां जन्माभिषेकतया आश्रयतया च, तथा-सर्वेषामपि गिरीणाम् उच्चस्त्वेनान्यवस्तुजातेन च राजा गिरिराज स्तस्मिन् गिरिराजे खलु पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता भवति-प्रतिरुद्धा भवतीति स्वशिष्येभ्य उपदिशेत एके एकमाहः ॥६॥ 'एगे पुण एवमासु ता रयणुच्चयंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमासु' एके पुनरेवमाहु स्तावद् रत्नोच्चये खलु पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत् । एके एवमाहुः ॥७॥-एके पुनः सप्तमाः एवं प्रजल्पन्ति का कहना है ।५। (एगे पुण एवमासु ता गिरिरायंसि णं पञ्चयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहियत्ति व एजा, एगे एवमासु) ६ कोई एक छठा तीर्थान्तरीय इस प्रकार से कहता है कि गिरिराज पर्वत में सूर्य की लेश्या प्रतिहत होती है ऐसा स्वशिष्यों को कहे कोई एक इस प्रकार से कहता है अर्थात् छठा तीर्थान्तरीय इस प्रकार कहता है कि गिरिराज माने सभी तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होने से तथा आश्रयभूत होने से तथा सभी पर्वतों में उच्चता वाला होने से तथा अन्य वस्तुसमूह वाला होने से राजा के समान हो वह गिरिराज उस गिरिराज नामक पर्वत में सूर्य की लेश्या प्रतिहत होती है माने रुक जाती है ऐसा स्वशिष्यों को कहे ।६। (एगे पुण एवमाहंसु ता रयणुच्चयंसिणं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहियत्ति वएजा एगे एवमाहंसु) कोई एक इस प्रकार कहता है कि रत्नोच्चय नामक पर्वत में सूर्य की लेश्या प्रतिहत होती है इस प्रकार स्वशिष्यों को कहें कोई एक इस प्रकार कहता है, कोई एक सातवां तीर्थान्तरीय का कथन है पव्ययसि सूरियस लेस्सा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे पुण एवमासु) गे से પ્રમાણે કહે છે કે-છો તીર્થાન્તરીય આ પ્રમાણે કહે છે કે–ગિરિરાજ એટલે કે—બધા તીર્થકરેના જમાભિષેક થવાથી તથા આશ્રયભૂત હોવાથી અને બધા પર્વતેમાં ઉંચાઈવાળા હોવાથી તથા અન્ય વસ્તુ સમૂહ રૂપ હોવાથી રાજાના સમાન હોય તે ગિરિરાજ એ ગિરિરાજ નામના પર્વતમાં સૂર્યની વેશ્યા પ્રતિહત થાય છે. એટલે કે રોકાઈ જાય છે, से शते २१शिष्याने ४. ।। (एगे पुण एवमासु ता रयणुच्चयंसि णं पव्वयंसि सूरियस्त लेस्सा पडिहया आहिताति वएज्जा एगे एवमाहंसु) 5 से 22 प्रमाणे हे छ -२त्नी શ્ચય નામના પર્વતમાં સૂર્યની વેશ્યા પ્રતિહત થાય છે. આ પ્રમાણે સ્વશિષ્યોને કહેવું કોઈ એક આ પ્રમાણે કહે છે, અર્થાત્ કેઈ એક સાતમે તીર્થાન્તરીય કહે છે કે-રત્નોચ્ચય નામના પર્વતમાં રન મણિ માણેક વેડૂર્ય વિગેરે અનેક પ્રકારના રત્નના અધિકપણાનો જે ચય એટલે કે ઉપચય અર્થાત્ ઢગલે જ્યાં હોય તે રત્નશ્ચય કહેવાય છે, એ રત્નશ્ચય શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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