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________________ ४८४ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रे सुदर्शन स्तस्मिन् सुदर्शने खलु पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता भवतीति स्वशिष्येभ्य उपदिशेदिति चतुर्थस्य प्रजल्पनम्, एके एवमाहुः ४ ॥ 'एगे पुण एवमाहंसु ता सयंपहंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु ५' एके पुनरेवमाहु-स्तावत स्वयंप्रभे खलु पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत, एके एवमाहुः ५ ॥-एके-पञ्चमाः एवं भाषन्ते यत् स्वयंप्रभे-स्वप्रकाश्ये, स्वयम्-आदित्यादि प्रकाश निरपेक्ष सूर्यकान्त-चन्द्रकान्त-स्फटिकादि रत्नबहुलतया प्रभा-प्रकाशो यस्य स स्वयं प्रभस्तस्मिन् स्वयंप्रभे खल पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता-कथिता इति स्वशिष्येभ्यो वदेत-कथयेदिति पञ्चमस्य मतम्, एके एवमाहुरिति ५ ॥ 'एगे पुण एवमासु-ता गिरिरायसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहियत्ति चए ज्जा, एगे जिसका है अर्थात् वज्ररत्नों की बहुलता से तथा जम्बूनद की बहुलता से मन को आनंदित करनेवाला सुंदर दर्शनवाले सुदर्शन नाम के पर्वत में सूर्य की लेश्या का प्रतिघात होता है ऐसा स्वशिष्यों को उपदेश करें । कोइ एक चतुर्थ मतवादी अपने मत विषक इस प्रकार से जल्पन करता है ।४। (एगे पुण एवमासु ता सयंपहंसि णं पव्वयंसि सरियस्स लेस्सा पडिया आहियत्ति वएज्जा, एगे एबमासु) ५ कोइ एक इस प्रकार से कहता है कि स्वयंप्रभ पर्वत में सूर्य की लेश्या प्रतिहत होती कही है ऐसा स्वशिष्यों को कहें । कोइ एक ऐसा कहता है। पांचवां तीर्थान्तरीय इस प्रकार कहता है की स्वयंप्रभ अर्थात् स्वयं प्रकाशमान् माने सूर्य का प्रकाश की अपेक्षा के विना ही सूर्यकांत, चन्द्रकांत स्फटिकादि रत्न की बहलता होने से उसको जो प्रभा माने प्रकाश जिसका हो वह स्वयंप्रभ उस स्वयंप्रभ पर्वत में सूर्य को लेश्या प्रतिहत कही है इस प्रकार स्वशिष्यों को कहें, इस प्रकार पांचवें मतवादी એટલે કે વા રત્નોની અધિકતાથી તથા જંબૂનદના અધિક પણાથી મનને આનંદિત કરવાવાળા સુંદર દર્શનવાળી સુદર્શન નામના પર્વતમાં સૂર્યની વેશ્યાને પ્રતિઘાત થાય છે, એ પ્રમાણે શિષ્યને ઉપદેશ કરે. કોઈ એક ચોથે મતવાદી પિતાના મતના समयमा • प्रमाणे ४६५न ४२ छे. १४१ (एगे पुण एवमासु ता सयंपहंसि ण पव्वयंसि सूरियस लेस्सा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमासु) a ४ मा प्रमाणे ४ छे કે- સ્વયંપ્રભ નામના પર્વતમાં સૂર્યની વેશ્યા પ્રતિહત થતી કહેલ છે, એ પ્રમાણે સ્વશિ. ને કહેવું અર્થાત્ કેઈ એક અર્થાત્ પાંચમો તીર્થાન્તરીય એ રીતે કહે છે કે–સ્વયંપ્રભ અર્થાત્ સ્વયં પ્રકાશમાન એટલે કે સૂર્યના પ્રકાશની અપેક્ષા વગર જ સૂર્યકાંત ચંદ્રકાંત સ્ફટિકાદિ રનની બહુલતા હોવાથી તેની જે પ્રભા એટલે કે પ્રકાશ તેના જેવો પ્રકાશ જેને હોય એ સ્વયંપ્રભ પર્વતમાં સૂર્યની વેશ્યા પ્રતિત થતી કહેલ છે. આ રીતે પિતાના शिष्याने हे. २ रीते पांयमा मतवाहिनु छ.।। (एगे पुण एवमासु ता गिरिरायसि णं શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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