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________________ सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिका टीका सू० २२ द्वितीयप्राभृते द्वितीयं प्राभृतप्राभृतम् २८७ अत्रोपसंहारमाह-'एगे एव माहंमु १' एके एवमाहुः १। एके-प्रथमास्तीर्थान्तरीयाः, एवंपूर्वोक्तप्रकारकं स्वमतमाहुः-कथयन्तीति, । 'एगे पुण एवमाहंसु २' एके पुनरेवमाहुः २ । एके-द्वितीयमतवादिनस्तीर्थान्तरीयाः, पुनः-प्रथमस्य मतं श्रुत्वा एवं-वक्ष्यमाणप्रकारकं स्वमतमाहुः-कथयन्ति, तद्यथा___ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं णिवेढेइ' तावत् मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् सूर्यः कर्णकलं निर्वेष्टयति ॥ श्रूयतां तावद् द्वितीयस्य मतं यथा-स एवं ब्रूतेमण्डलान्मण्डलम्-एकस्मान्मण्डलादपरं मण्डलान्तरं संक्रामन्--संक्रभितुमिच्छन् सूर्यस्तदधिकृतं मण्डलं प्रथमक्षणार्ध्वमारभ्य कर्णकलं-कर्णगति निर्वेष्टयति-मुञ्चति । इत्थमत्र भावना यथा-भरतैरवतौ द्वौ सूयौँ प्रज्ञप्तौ, तत्र भरतैरवतो वा सूर्यः स्वस्व स्थाने उद्गतः सन् इस प्रकार संक्रमण करके उस मंडल में गति करता है। अब इस कथन का उपसंहार करते हुवे कहते हैं एगे एव मासु'१ प्रथम मतवादी कोई एक इस प्रकार कहता है अर्थात् प्रथम तीर्थान्तरीय इस प्रकार अपने मत के विषय में करताहै।१॥ ___ 'एगे पुण एवमाहंसु' २ कोई दूसरा एक इस प्रकार कहता है माने दूसरा मतवादी तीर्थान्तरीय प्रथमवादी के मतको सुनकरके इस वक्ष्यमाण प्रकारसे अपने मतके विषय में कहता है जो इस प्रकार से हैं-'ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं णिवेढेइ' एक मंडल से दूसरे मंडल में संक्रमण करता हुवा सूर्य कर्णकलासे गति करता हैं । अर्थात् भगवान् कहते हैं दूसरा परमतवादी के मतको सुनो वह कहता है कि एक मंडल से दूसरे अन्य मंडल में गमन करने कि इच्छा वाला सूर्य अपने से अधिकृत मंडल को प्रथम क्षण के बाद कर्णकला का आरंभ करके छोडना है-यहां पर इस प्रकार की भावना समझनी चाहिये भरतक्षेत्रका एवं ऐरचनक्षेत्र का इसप्रकार “यु. म. प्रभारी संभ शनणे गति ४२ छ, (एगे एवमाहंस) प्रथम તીર્થોત્તરીય આ રીતે પિતાને મત પ્રતિપાદિત કરે છે. (૧) __ (एगे पुण एचमाहंमु) गीत २४ २१न्य मतवाही प्रमाणे छ. मेट से पहला મતવાદીના મતનું કથન સાંભળીને બીજે મતવાદી તીર્થાતરીય આ વક્ષ્યમાણ પ્રકારથી पाताना मतना समयमा ४ छ रे प्रमाणे छ.-(ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं णिवेढेइ) मे भ४थी मी मामा संभ ४२ते। सूर्य ४४ाथी गति કરે છે, એટલે કે-ભગવાન કહે છે કે બીજા મતવાદીના મતને તમે સાંભળે તે કહે છે કે એક મંડળમાંથી બીજા મંડળમાં ગમન કરવાની ઈચ્છાવાળે સૂર્ય પોતાનાથી વ્યાપ્ત થયેલ મંડળને પ્રથમ ક્ષણ પછી કર્ણકલાને આરંભ કરીને છોડે છે, આ કથનને ભાવ આ રીતે સમજ. ભરતક્ષેત્રને અને એરવતક્ષેત્રને આ પ્રમાણે બે સૂર્યો કહેલા છે, શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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