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________________ सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिका टीका सू० २० प्रथमप्राभृते अष्टमं प्राभृतप्राभृतम् विष्कम्भपरिमाणं भवति १०००००-३६०-९९६४० नवनवतानि योजनशतसहस्राणि षट्शतानि चत्वारिंशदधिकानि इति यथोक्तं सिध्यति, तथाहि-तस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्य विष्कम्भो नवनवति योजनसहस्राणि षट्शतानि चत्वारिंशदधिकानि-९९६४० एतेषां वर्गों विधीयते तदा जातो नवको नवको द्विकोऽष्टकः, एकको द्विको नवकः षट्को द्वे च शून्ये-९९२८१२९६००, ततो दशभिर्गुणनेन जातमेकाधिकं शून्यं-९९२८१२९६०००, अस्यासन्नवर्गमूलानयनेन यथोक्तं परिरयपरिमाणम् । शेषं च २१८०७९ द्विक एककोऽष्टकः शून्यं सप्तको नवकः । एतद् व्यर्थमासनमूलत्वात् । 'तया णं उत्तमकढपत्त उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' तत्र खलु उत्तमइतना जो जम्बुद्वीप को एक लाख योजनवाला विष्कंभ परिमाण से विशोधित किया जाय माने कम किया जाय तो इस पूर्व कथित आयामविष्कंभ का परिमाण मिल जाता है १०००००-३६०=९९६४० अर्थात् नन्नाणु हजार छसो चालीस यथोक्त हो जाता है। इस प्रकार उस सर्वाभ्यन्तर मंडल का विष्कंभ ९९६४० नन्नाणु हजार छसौ चालीस होता है इसका वर्ग किया जाय तब नव, नव, दो, आठ, एक, दो, नव, छह के अनंतर दो शून्य ९९२८१२९६०० अर्थात् नव अबज बिराणु करोड इकासी लाख उन्तीस हजार छसो होता है इसको दस से गुणा करने पर पूर्वोक्त अंको में एक शून्य अधिक होता है जैसे ९९२८१२९६०००, नन्नाणु अबज अठाईस करोड बारह लाख छन्नु हजार होता है इसका वर्गमूल करने से पूर्वोक्त परिधि प्रमाण निकल आता है तथा २१८०७९ दो लाख अठारह हजार उन्नासी शेष बचता है यह आसन्नमूलत्वात् व्यर्थ है 'तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई જનન વિષ્ઠભ પરિમાણમાંથી વિશેધિત કરવામાં આવે અર્થાત્ ઓછું કરવામાં આવે तो मा पूर्व प्रथित मायामवि मनु परिभाए। भजी लय छे. १०००००-38034८६४० નવ્વાણ હજાર છસે ચાલીસ યક્ત રૂપથી થઈ જાય છે. આ રીતે એ સભ્યન્તર મંડળને વિષ્કભ ૯૯૬૪૦ નવાણું હજાર છસો ચાલીસ થાય છે તેને વર્ગ કરવામાં આવે ત્યારે નવ, નવ, બે, આઠ, એક, બે, નવ, છ પછી બે શૂન્ય ૯૯૨૮૧૨૯૬૦૦ નવ અજબ બાણુ કરોડ એકાસી લાખ ઓગણત્રીસ હજાર છો થાય છે. આને દસથી ગુણવાથી પૂર્વોક્ત અંકમાં એક શૂન્ય વધારે થાય છે. જેમકે ૨૮૧૨૯૬૦૦૦ નવાણુ અજબ અઠયાવીસ કરોડ બાર લાખ છનનું હજાર થાય છે. છે, આનું વર્ગમૂળ કરવાથી પૂર્વોક્ત પરિધિનું પ્રમાણ નીકળી આવે છે. તથા ૨૧૮૦૭૯ બે साम मढा२ ९०१२ मशासी शेष पछ. ते मासन्न भूदायात व्यर्थ छे. (तया णं उत्तमकदपत्ते उक्कोसए अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ) त्यारे ५२म શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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