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________________ २१२ सूर्यप्रक्षप्तिसूत्रे यतानि आख्यातानि-अनियतरूपेणाख्यातानि अर्थात् कस्यापि मण्डलस्य कियान आयामो विष्कम्भः परिक्षेपश्च, अन्यस्य मण्डलस्यान्य एवायामो विष्कम्भः परिक्षेपश्चेतिभावः, एवं प्रकारेण स्वशिष्येभ्यो वदेत-कथयेत् । एवमुक्ते गुरौ भगवान् गौतमः पृच्छति-'तत्थ णं को हेऊ त्ति वएज्जा' तत्र खलु को हेतु रिति वदेत् ॥ तत्र-मण्डलपदानामायामविष्कम्भपरिक्षेपानियतत्वे को हेतुः !-किं कारणम् !-का चोपपत्तिरिति वदेत्-प्रणतं मां कथयेदिति प्रणतशिष्यस्य भावपूर्णा जिज्ञासावृत्तिं विज्ञाय प्रणतप्रतिपालको भगवानाह--'ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं' तावदयं जम्बूद्वीपो द्वीपः यावत् परिक्षेपेण । तावत्-श्रूयतां तावद् विशेषेण समाहितेन चेतसा अयं-पुरोवर्ती दृश्यमानो जम्बूद्वीपो वर्त्तते, योऽयं एवं परिक्षेप से अनियत प्रकार का कहा है अर्थात् कोई मंडल का कितना आयाम होता है या कितना विष्कम्भमान है या कितना परिक्षेप है एवं कोई अन्य मंडल का दूसरा ही प्रकार का आयाम विष्कम्भ और परिक्षेप होता है इस प्रकार से अपने अपने शिष्यों को समझावें । पूर्वोक्त प्रकार से भगवान् के कहने पर श्री गौतमस्वामी पुनः भगवान को प्रश्न करते हैं-'तत्थ णं को हेजत्ति वएजा' हे भगवन् मंडलपदों के आयामविष्कम्भ एवं परिक्षेप के अनियतरूप से होने में क्या हेतु है ? क्या कारण है ? तथा च इसकी उपपत्ति क्या है ? सो वंदन करते हुवे मुझे कहिये । इस प्रकार वंदन करते शिष्यरूप गौतमस्वामी के भावपूर्ण जिज्ञासा वृत्ति को जान करके प्रणतप्रतिपालक श्री भगवान कहते हैं-'ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेगं' यह जंबूदीप नाम का दीप यावत् परिक्षेप से कहा है, कहने का भाव यह है कि भगवान गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुवे कहते हैं कि हे गौतम ! तुम सविशेष सावधान चित होकर सुनो यह समीકહેલા છે. અર્થાત કોઈ એક મંડળનો જેટલો આયામ છે કે વિર્ષોભ અથવા પરિક્ષેપ હોય છે તેનાથી બીજા કોઈ મંડળને અન્ય પ્રકારને આયામવિઝંભ અને પરિક્ષેપ હોય છે. આ પ્રમાણે પોતપોતાના શિષ્યોને સમજાવવું. પૂર્વોક્ત પ્રકારથી ભગવાને કહ્યાથી શ્રી ગૌતમસ્વામી ભગવાનને ફરીથી પ્રશ્ન કરતાં हुई छ -(तत्य णं को हेऊत्ति वएना) भगवन् भ७५ोमi मायामवि सने પરિસેપના અનિષતપણાથી હવામાં શું હેતુ છે? શું કારણ છે? અને એની ઉપપત્તિ શું છે? એ વંદન કરતા એવા મને કહે આ પ્રમાણે વંદન કરતા શ્રી ગૌતમસ્વામીની मा१५७ शास! वृत्तिने olने प्रात प्रति५६४ श्री मायान् ४ छ-(ता ( अयण्णं जंबुद्दोवे दीवे जाव परिक्खेवेणं) •RAI 'भूदी५ नामने। दी५ यावत् परिशपथी उस छे. કહેવાને ભાવ એ છે કે ભગવાન ગૌતમસ્વામીના પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતાં કહે છે કેહે ગૌતમ! સવિશેષ સાવધાન ચિત્તવાળા થઈને સાંભળે આ સમીપસ્થ સામે દેખાતે શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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