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प्रज्ञापनासूत्रे
विमानानि अनुत्तरविमानानि, ईषत्प्राग्भाशं पृथिवीम्, परमाणु पुद्गलं द्विप्रादेशिकं स्कन्धं यावद् अनन्तप्रादेशिकं स्कन्धम्, केवली खलु भदन्त । इमां रत्नप्रभां पृथिवीम् अनाकारैरहेतुभिरनुपमाभिरदृष्टान्तैरवर्णैरसंस्थान र प्रमाणैरप्रत्यचतारैः पश्यति न जानाति ? हन्त, गौतम ! केवल खल इमां रत्नप्रभां पृथिवीम् अनाकारै यवित् पश्यति न जानाति, तत् केनार्थेन मदन्त ! एवमुच्यते - केवळी इमां रत्नप्रभा पृथिवीम् अनाकारै यवित् पश्यति सोहम्मं कप) इसी प्रकार सौधर्म कल्प को (जाव अच्चुयं) यावत् अच्युत कल्प को (गेविज चिमाणा ) ग्रैवेयक विमानों को (अनुत्तरविमाणा) अनुत्तर विमानों को (ईसीपभारं पुढवीं) ईषत्प्रागभार पृथिवी को ( परमाणुपोग्गलं ) परमाणु पुद्गल को (दुपदेसि संघ) द्विप्रदेशी स्कंध को ( जाव अनंतपएसियं खंधं) यावत् अनन्तप्रदेशो स्कंध को ।
(केवली णं भंते ! इमं रयणप्प पुढवि) हे भगवन् ! केवली इस रत्नप्रभा पृथिवो को (अणागारे हिं) अनाकारों से ( अहे ऊहिं) अहेतुओं से (अणुवमाहिं) अणुपमाओं से (अदितेहि) अदृष्टान्तों से (अवण्णेहिं) अवर्णों से (असंठाणे हिं) असंस्थानों से (अपमाणेहिं) अप्रमाणों से (अपडोयारेहिं) अप्रत्यवतारों से ( पास न जाणइ ?) देखते हैं, जानते नहीं हैं ? (हंता) हां (गोयमा ! ) हे गौतम ! (केवलो णं इमं रणध्यमं पुढविं) केवली इस रत्नप्रभा पृथ्वी को (अणा गारेहिं जाव पासइ न जाणइ) अनाकारों से यावत् देखते हैं, जानते नहीं हैं ( से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ ? ) हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता हैं (केवली इमं रमणपभं पुढिवि अणागारेहिं जाव पासइ, ण जाणइ ?) कि
( एवं जाव अहे सत्तम) अरे यावत् सातभी पृथ्वीने (एव सोहम्मं कप्प ) से अहारे सोयर्स अपने (जाव अच्चुर्य) यावत् अभ्युत उपने (गेविज विमाणा ) चैवेय४ विमानाने (अनुत्तरविभाणा) अनुत्तर विमानाने (ईसीप भार पुढ) षत्प्राभार पृथ्वीने ( परमाणुपोग्गलं ) परमाणु युगलाने (दुपदेसिय संघ) द्विदेशी धोने (जाव अनंत
परसिय संध) यावत् अनन्त प्रदेशी सुन्धाने.
नाशुताथी.
(केलीणं भंते! इयं यजप पुढवि) हे भगवन् ! उसी या रत्नप्रभा पृथ्वीने (अणागारेहिं) अना||थी (अहे ऊहि ) महेतुमेथी (अणुवमाहिं) अनुयभायोथी ( अदितेहि ) मदृष्टान्तोथी (अवण्णेहि) अपर्णाथी (असंठाणेहि ) यस स्थानोथी ( अपमाणेहि) अप्रमाणोथी (अपडोयारेहिं ) प्रत्यवतारोथी ( पासइ न जाणइ १) हेथे छे, (हंता) हा (गोमा) हे गौतम (केवली णं इमं रयणप्प पुढत्रि) डेवली या रत्नप्रभा पृथ्वीने (अणागारेहिं जाव पासइ न जाणइ) मनाअथीयावत् देखे छे, लगता नथी (सेकेणट्टेणं अंते ! एवं वच्चइ ?) हे भगवन् ! शा अरएधी सेभ उहेवाय छे ? ( केवली मं रयणप्प पुढचं अणागारेहिं जाव पासइण जानइ ) है हैपसी मा रत्नप्रभा पृथ्वीने मना
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫