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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ३० सू० २ केवलीज्ञानसम्पत्तिनिरूपणम् ७४७ न जानाति ? गौतम ! अनाकारं तदर्शनं भवति, साकारं तज्ज्ञानं भवति, तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-केवली खलु इमां रत्नप्रभां पृथिवीम् अनाकारै वित् पश्यति न जानाति, एवं यावद् ईषत्प्राग्थारां पृथिवीम्, परमाणु पुद्गलम् अनन्तप्रादेशिकं स्कन्धं पश्यति न जानाति । पश्यन्ता पदं समाप्तम् ॥ ३०॥ सू० २॥ ____टीका-पथ छद्मस्थानां सकर्मकत्वेन साकारोऽनाकारश्वोपयोगः क्रमिक एवं उत्पत्तु. मर्हति, सकर्मणां जीवानामेकतरस्योपयोगस्य समये तदन्य उपयोगः कर्मणाऽऽवृतत्वात् नोत्पत्तुपर्हति तयो युगपद विरोधात् तथा च छद्मस्थो यस्मिन् समये जानाति न तस्मिन्नेव केवली इस रत्नप्रभा पृथिवी को अनाकारों से यावत् देखते हैं, जानते नहीं हैं (गोयमा ! अणागारे से दंसणे भवइ) हे गौतम ! उन का दर्शन अनाकार होता है (मागारे से नाणं भवइ) उनका ज्ञान साकार होता है (से तेणद्वेगं गोयमा ! एवं बुच्चइ) हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है (केवली णं इमं रयणप्पमं पुढवि) केवली इम रत्नप्रभा पृथिवी को (अणागारेहिं) अनाकारों से (जाव पासइ ण जाणई) यावत् देखते हैं, जानते नहीं (एवं जाय ईसिपम्भारं पुढवि) इसी प्रकार ईषत्प्रारभार पृथ्वी को (परमाणुपोग्गलं) परमाणु पुद्गल को (अणतपदेसियं खधं) अनन्तप्रदेशी स्कंध को (पासइ न जागइ) देखते हैं, जानते नहीं हैं । सू० २॥ पासणया पद समाप्त टीकार्थ-छद्मस्थ जीव सकर्मक होते हैं, अतएव ज्ञनका साकारोपयोग और निराकारोपयोग क्रम से ही उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि सकर्मक जीवों के एक उपयोग के समय दूसरा उपयोग कर्म से आवृत हो जाता है, इस कारण કારેથી યાવત દેખે છે, જાણતા હોતા નથી. (गोयमा ! अणागारे से दसणे भवइ) 0 गौतम! तमना - अनार हाय छ (सागारे से नाणं भवइ) तमना ज्ञान सा२ हेय छ (से तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ). गौतम ! से रथी म पाय छ (केवली णं इमं रयणप्पमं पुढवि) उपक्षी मा २त्नप्रमा मीन (अणागारे हि) मनाथी (जाव पासइ ण जाणइ) यावत् हे थे, तो नथी ( एवं जाव इसिपब्भार पुढवि) से ५४ारे यावत् ७५त् प्रामा२ थाना (परमा गुपोग्गलं) परमाणु पुराना (अणंतपएसिय खंध) अनन्त प्र३ २४न्धने (पासह न जोणइ) हेणे छ, on नयी. ॥१० २॥ પાસણયા પદ સમાપ્ત ટીકાર્ય -છદ્મસ્થ જીવ સકર્મક હોય છે, તેથી જ તેમના સાકારે પગ અને નિરાકારે પગ કમથી જ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે, કેમકે સકર્મક ના એક ઉપગને સમય બીજા ઉપયોગ કર્મથી આવૃત્ત બની જાય છે, એ કારણે તે ઉત્પન્ન નથી થઈ શક્તા. શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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