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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद २८ सू० १ सचित्ताहारादिनिरूपणम् ५३३ गाढा कालतोऽन्यतरस्थितिकानि भावतो वर्णवन्ति, गन्धवन्ति, रसवन्ति, स्पर्शयन्ति, या भावतो वर्णयन्ति आहारयन्ति तानि किम् एकवर्णानि आहारयन्ति यावत् किं पञ्च वर्णानि आहारयन्ति ? गौतम ! स्थानमार्गणं प्रतीत्य एकवर्णान्यपि आहारयन्ति, यावत् पञ्च वर्णान्यपि आहारयन्ति, विधानमार्गणं प्रतीत्य कृष्णवर्णान्यपि आहारयन्ति यावत् शुक्लवर्णान्यपि आहारयन्ति, यानि वर्णतः कृष्णवर्णानि आहारयन्ति तानि किम् एकगुणकालका नि आहारयन्ति यावद दशगुणकालकानि आहारयन्ति संख्येयगुणकालकानि आहारयन्ति असंप्रदेशी (खेत्तम असंखेज्जपए सोगाढाई) क्षेत्र से असंख्यात प्रदेशों में रहे हुए (कालओ अण्णघरट्ठियाई) काल से किसी भी स्थिति वाले (भावओ वण्णमंताई, गंधमताई, रसमंताई फा समंताई) भाव से वर्ण वाले, गंध वाले, रस वाले, स्पर्श वाले (जाई भावओ वण्णमंताई आहारे ति) भाव से वर्ण वाले जिन पुद्गलों का आहार करते हैं (ताई कि एगवण्णाई आहारेति जाब किं पंचवण्णाई आहारेति ?) क्या उन एकवर्ण वालों का आहार करते हैं ? यावत् कया पांच वर्णवालों का आहार करते हैं ? (गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाई पि आहारेति जाव पंचचण्णाई पि आहारेति ? ) हे गौतम! स्थानमार्गणा सामान्य की अपेक्षा से एकवर्ण वालों का भी यावत् पांच वर्णवालों का भी आहार करते हैं (विहाणमगगणं पडुच्च) भेद-मार्गणा की अपेक्षा से ( कालवण्णाई पि आहारेंति) काले वर्ण वालों का भी आहार करते हैं (जाय किल्लाई पि आहारेति यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं (जाई वण्णओ कालवण्णाई आहारे ति) वर्ण से जिन काले वर्ण बालों का आहार करते हैं (ताई कि एगगुणकालाई आहारेति जाय दसपरसोगाढाई) क्षेत्री असंख्यात प्रदेशमा रहेला (कालओ अण्णयरट्ठिइयाइं ) अणथी अर्ध पास्थितिवाणा (भावओ वण्णमंताई, गंधमंताई, रसमंताई, फासमंताई) लावथी पशु पाजा गंध वाणा, रसपाना, स्पर्शयाना, (जाई भावओ वण्णमंताई आहारे ति) भावथी पापाजा युगोनो आहार ४२ छे (ताई कि एगवण्णाई आहारेति जाव पंच वण्णाई आहारे ति) શું તેઓ એક વણ વાળાના આહાર કર છે યાવત્ શું પાંચ વણુ વાળાના આહાર કરે છે? (गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाई वि आहारेति जाव पंचवण्णाई वि आहारे ति ?) હે ગૌતમ ! સ્થાન માગણા સામાન્યની અપેક્ષાથી એકવણુ વાળાઓને યાવત્ પાંચ વ. बाजामा पशु आहार ४२ छे (विहाणमग्गणं पडुच्च) ले भार्गानी अपेक्षाथी (काल aण्णा व आहारे ति) अणावशु पाणामोतो पशु आहार रेछे (जाय सुकिल्लाई वि आहारे ति यावत् शुद्धवर्णा पाणा युद्दगोनो पशु आहार पुरे छे (जाईं वण्णओ कालTours' आहारे ति) पशुथी के आज वर्षावाणानो आहार १रे छे. (ताई किं एगगुणकालाइ आहारेति जाव दसगुणकालाई आहारेति ?) शु ते मेड गुणु अजायनो आहार पुरे छे, શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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