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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद २६ सू० १ कर्मवेदबन्धनिरूपणम् जीवाः खलु भदन्त ! वेदनीयं कर्म वेद यमानाः कति कर्मप्रकृती बध्नन्ति ? गौतम ! सर्वेऽपि तावद् भवेयुः सप्तविधबन्धकाश्च, अष्टविधबन्धकाच, एकविधबन्धकाच, अथया सप्तविधयन्धकाश्च अष्टविधबन्धकाच, एकविधबन्धकाच, पइविधबन्धकश्च, अथवा सप्तविधबन्धकाश्च अविध बन्धकाश्च एकविधबन्धकाश्च पड़ विश्वन्धकाच, अबन्धकेनापि समं द्वौ भङ्गौ भणितव्यो, सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधबन्धकाश्च एकविधबन्धकाच षविधबन्धकश्च अबन्धकश्च चतुर्भज:, प्रकार वैमानिको तक। (जीचा णं भंते ! वेदणिज्जं कम्मं वेदेमाणा कति कम्मपगडीओ बंधंति ?) हे भगवन् ! बहुत जीव वेदनीयकर्म का वेदन करते हुए कितनी कर्मप्रकृतियां बांधते हैं ? (गोयमा ! सव्वे वि ताय होजा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहषंधगा य एगविहबंधगा य) हे गौतम ! सभी होते हैं सात के बन्धक, आठ के बन्धक और एक प्रकृति के बन्धक (अहवा सत्तविहबंधगा य, अट्ठविहबंधगा य, एग विहबंधगा य, छव्यिहबंधगे य) अथवा बहुत सात के बन्धक, बहुत आठ के बन्धक, बहुत एक के बन्धक और एक छह का बन्धक (अहया सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य, एगविहबंधगा य, छव्यिहबंधगा य) अथवा बहुत सात के बन्धक, बहुत आठ के बन्धक, बहुत एक के बन्धक और बहुत छह के बन्धक (अबंधगेण वि समं दो भंगा भाणियव्या) अबन्धक के साथ भी दो भंग कहने चाहिए (अहवा सत्तविहबंधगा य, अविहबंधगा य, एगविहबंधगा य, छव्यिह बंधगे य, अपंधगे य) अथवा बहुत सात के बन्धक बहुत आठ के बन्धक बहुत एक के बन्धक, एक छह का बन्धक और कोई एक अबन्धक (च उभंगो) चार जाव वेमाणिया) से घारे मानि सुधा (जीवा णं भंते ! वेयणिज्ज कम्मं वेदेमाणा कति कम्मपगडीओ बधति !) है. सायन् ! ઘણા જીવ વેદનીય કર્મનું વેદન કરતાં કેટલી કર્મપ્રકૃતિએ બાંધે છે? (गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहब धगा य छव्धिहबंधंगा य एगविहबंधगा ૨) હે ગૌતમ ! બધા હોય છે સાતના બંધક, આઠના બંધક અને એક પ્રકૃતિના બન્ધક (अहबा सत्तविहबंधगा य अटविहबधगा य एगविहब धगा य छव्यिहबधगा य) ११॥ ઘણા સાતને બધેક અને ઘણા આઠના બંધક ઘણા એકના બંધ, અને ઘણા છના બંધક (अह्वा सत्तविहबधगा य अढविहबंधगा य, एगविहब धगा य छव्यिहबंधगा य) मया ઘણું સાતના બંધક ઘણા આઠના બંધક ઘણાં એકના બંધક અને ઘણા છના બંધક (अबंधगेण वि समं दो भंगा भाणियव्या) अनी साथे ५९ मे महेवा नसे. (अहवा सत्तविबधगा य अदृविहबधगा य एगविबधगा य छव्विबंधगे य अबंधगे य) અથવા ઘણું સાતના બંધક ઘણા આઠના બંધક, ધણુ એકના બંધક, એક છને બંધક અને શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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