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________________ ४९८ प्रज्ञापनासत्रे अथवा सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधवन्धकश्च पड्विधबन्धकश्च एकविधबन्धकश्च भङ्गा अष्टौ, एवम् एते सप्तविंशतिभङ्गाः, एवं यथा ज्ञानावरणीयं तथा दर्शनावरणीयमपि, अन्तरायपि, जीयः खलु भदन्त ! वेदनीयं कर्म वेदयमानः कति कर्मप्रकृती बंध्नाति ? गौतम ! सप्तविध बन्धको या अष्टविधबन्धको बा षडविधबन्धको वा एगविधवन्धको वा अबन्धको वा, एवं मनु व्योऽपि अवशेषा नारकादिकाः सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधवन्धकाश्च एवं यावद् वैमानिकाः, य चउभंगो) अथवा बहुत सात के बन्धक, एक छह का बन्धक और एक कोई एक का बन्धक-चार भंग (अहया सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधए य, छव्यिहबंधए य, एगविहबंधए य) अथवा बहुत सात के बन्धक, एक आठ का बन्धक, एक छह का बन्धक और एक एक का बन्धक (भंगा अट्ट) भंग आठ (एवं एए सत्तावीसं भंगा) इस प्रकार ये सत्ताईस भंग कहे हैं। (एवं जहा णाणावरणिज्जं तहा सणावरणिज्जं वि) इस प्रकार जैसे ज्ञानायरण, उसी प्रकार दर्शनावरण भी (अंतराइयं वि) अन्तराय कर्म भो । (जीवे णं भंते ! वेदणिज्ज कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ बंधइ ?) हे भगवन् ! जीय वेदनीय कर्म का चेदन करता हुआ कितनी कर्मप्रकृतियों का बंध करता है ? (गोयमा ! सत्तविहबंधए था, अट्टविहबंधए चा, छव्यिहबंधए बा, एग. विहबंधए वा अबंधए चा) हे गौतम ! सात का बन्धक, आठ का बन्धक, छह का बन्धक, एक का बन्धक अथवा अबन्धक होता हैं (एवं मणूसे थि) इसी प्रकार मनुष्य भी (अबसेता णारयादीया सत्तविहबंधगा, अट्टविहबंधगा) शेष नारक आदि सात के बन्धक या आठ के बन्धक होते हैं (एचं जाय येमाणिया) इसी ઘણા સાતના બંધક એક છના બંધક અને કઈ એક-એકના બંધક, ચાર ભંગ. (अहवा सतविहबंधगा य, अट्टविहबंधए य छब्बिबधर य एगविहबधए य) અથવા ઘણા સાતના બધક, એક આઠના બધક, એક ઇના બંધક અને એક–એકના सन्ध: (भंगा अट्ठ) मा माई (एवं एए सत्तावीसं भंगा) से प्रारे २मा सत्यापीस छे. (एवं जहा णाणावरणिज्ज तहा दसणावरणिज्ज वि) से प्रारं ज्ञानाप२०ीय ते तर शना१२९ीय ५५) (अंतराइयं वि) अन्तराय ५९१. (जीवे णं भंते ! वेयणिज्ज कम्म वेदेमाणो कति कम्मपगडीओ बंधइ ?) हे भगवन्! જીવ વેદનીય કર્મોનું વેદન કરતા કેટલો કર્મ પ્રકૃતિને બંધ કરે છે. (गोयमा ! सत्तविहबधए वा अटुविधए वा, छव्यिहवंधए वा, एगविहबधए या अबंधए वा)-3 मौतम ! सातना ५४, छन। ५५४ भने सेना ५४ अथवा અબંધક હોય છે. (एवं मणूसे वि) मे रे मनुष्य ५ (अवसेसा णारगादीया सत्तविहबंधगा, अविहबंधगा) शेष ना२५ मा सातना मार मार 4.31 4 थाय छे. (एवं શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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