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________________ ૪૮૦ प्रज्ञापनासूत्रे चीकाका केन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकवा नव्यन्तर ज्योतिष्कवैमानिकश्च कश्चित् , विधवन्धको भवति कचित्पुनरष्टविधबन्धको भवति, गौतमः पृच्छति - 'जीवा णं भंते ! वेणिज्जं कम्मं पुच्छा' हे मदन्त ! जीवाः खलु वेदनीयं कर्म बघ्नन्तः कति कर्मप्रकृती नन्ति ? इति पृच्छा, भगवानाह - 'गोयमा !' हे गौतम ! 'सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगाय, अट्ठचिहबंधगा य एगविहबंधगा य, छव्विहबंधए य' सर्वेऽपि तावद् जीवाः वेदनीयं कर्म बध्नन्तो सप्तविधबन्धकाश्च भवेयु बहवः, अष्टविधबन्धकाच एकविधबन्धका बहवो भवेयुः कश्चित् षड़विधवन्धकश्च भवेत्, ' अहवा सत्तविहबंधना य अविबंधगा य एगविहधगा य छविहधगा य' अथवा बहवः सप्तविधबन्धकाच अष्टविधबन्धाश्च एकविधवन्धकाश्च षविधवन्धकाश्च भवेयुः 'अवसेसा नारगादीया जाय वेमाणिया जहिं णाणावरणं बंधंति तहिं भाणियच्या' अवशेषा नारकादिका यावद्-असुर कुमारादि भवनपतिपृथिकी कायिकाद्ये केन्द्रिय विकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यत्र ज्ञानावरणीयं कर्म बध्नन्ति तत्र वेदनीयं कर्मापि पृथिवीकायिक आदि एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों पंचेन्द्रिय तिर्यचो, वानव्यन्तरों ज्योतिष्कों और वैमानिकों के विषय में भी कहलेना चाहिए, अर्थात् इनमें भी कोई सात का और कोई आठ का बन्धक होता है । गौतमस्वामी - हे भगवन् ! (बहुत) जीव वेदनीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियां बांधते हैं ? भगवान् हे गौतम ! सभी सात के बन्धक होते हैं, बहुत आठ के बन्धक और बहुत से एक के बन्धक होते हैं, कोई एक छह का बन्धक होता है । अथवा बहुत सात के बन्धक, बहुत आठ के बन्धक, बहुत एक के बन्धक और बहुत छह के बन्धक होते हैं, शेष areas से लेकर वैमानिकों तक अर्थात् नारक, असुरकुमार आदि भवनपति, पृथ्वी कायिक आदि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतियेच, वानव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिक जहां ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हुए कहे વિકલેન્દ્રિયા, પંચેન્દ્રિય તિય "ચા, વાનભ્યન્તરે, જ્યાતિષ્કા, અને વૈમાનિકાના વિષયમાં પણ કહેવુ જોઇએ. અર્થાત્ તેએમાં પણ કાઈ સાતના અને કોઈ અાર્ડનાં બંધક બને છે. શ્રીગૌતમસ્વામી-હે ભગવન્! (ઘણા) છત્ર વેદનીય કને અંધતા છતાં કેટલી કમ પ્રકૃતિચા ખાંધે છે ? શ્રીભગવાન્ હૈ ગૌતમ ! બધા સાતના અંધક હેાય છે, ઘણા આઠના અન્ધક અને ઘણા એકના અન્યક હોય છે, એક છના અંધક થાય છે, અથવા ઘણા સતના ખંધક, ઘણા આઠેના ખધક ઘણાએકના અર્ધક અને ઘણા છના અન્ય અનતા હાય છે. શેષ નારકોથી લઈને વૈમાનિકા સુધી અર્થાત્ નારક અસુરકુમાર આદિ ભવનપતિ, પૃથ્વીકાયિક આદિ એકેન્દ્રિય, વિકલેન્દ્રિય, પંચેન્દ્રિય તિય ચ, વાનન્યન્તર, જ્યાતિષ્ઠ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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