SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 490
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद २४ सू० १ कर्मप्रकृतिबन्धनिरूपणम् ४७७ 'अहह्या सत्तविहबंधगा य अविहबंधगे य छव्यिहबंधगा य ७' अथवा बहबो मनुष्याः सप्त विधबन्धकाश्च कश्चित्पुनरष्टविधबन्धकश्च बहव एव षडविधबन्धकाश्च भवन्ति ७' 'अह्या सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छब्बिहबंधगे य ८' अथवा बहवः सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधबन्धकाश्च भवन्ति कश्चित्पुनः, षहविधवन्धकश्च भवति ८' 'अहया सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य छबिहबंधगा य ९ एवं एए नव भंगा' अथवा बहव एव मनुष्याः ज्ञानावरणीयं कम बध्नन्तः सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधबन्धकाच षड्विधबन्धकाश्च भवन्ति, एवं रीत्या एते- पूर्वोक्ता नव भङ्गा भवन्ति, तथा च मनुष्यपदे अष्टविधबन्ध कस्य षड्विधबन्धकस्य च कदाचित सर्वथापि असदभावेन तयोरभावे 'सर्वेऽपि तायद् भवेयुः सप्तविधबन्धकाः' इति प्रथमो भङ्गः, सप्तविधबन्धकानां सदैव बहुत्वेनोपलभ्यमानस्वात, एकस्याष्टविधबन्धकस्य सद्भावे द्वितीयो भङ्गः, बहूनामेवाष्टविधबन्धकानां सद्भावे तृतीयः, अष्टका बधक होता है। (७) बहुत से मनुष्य सात के बन्धक, एक आठ का बन्धक और बहुत से छह के बन्धक होते हैं। (८) बहुत से मनुष्य सात के बन्धक होते हैं, बहुत से आठ के बन्धक होते हैं और एक कोई छह का बन्धक होता है। (९) बहुत से सात के बन्धक, बहुत से आठ के बन्धक और बहुत से छह के बन्धक होते हैं। __ मनुष्य में उल्लिखित नौ विकल्प पाये जाते हैं । तात्पर्य यह है कि जब आठ प्रकृतियों का और छह प्रकृतियों का बन्धक एक भी मनुष्य नहीं पाया जाता, तब सभी मनुष्य सान प्रकृतियों के बन्धक होते हैं, यह प्रथम भंग हुआ। सात के बन्धक सदैव बहुत मनुष्य होते हैं किन्तु जब एक आठ का भी बन्धक तब द्वितीय भंग होता है । जब आठों के बन्धक भी बहुत होते हैं तब तीसरा બન્યક થાય છે. () ઘણું મનુષ્ય સાતના બધક, એક આઠને બન્ધક અને ઘણું છના બન્ધક भने छ. (૮) ઘણા બધા મનુષ્ય સાતના બન્ધક થાય છે, ઘણુ ખરા આઠના બંધક હોય છે. અને એક કઈ છને બંધક બને છે, (૯) ઘણા સાતના બંધક, ઘણા આઠના બંધક અને ઘણું છના બંધક હોય છે. મનુષ્યમાં ઉલ્લિખિત નૌવિકલ્પ મળે છે. તાત્પર્ય એ છે કે, જ્યારે આઠ પ્રકૃતિને અને છ પ્રકૃતિને બંધક એક પણ મનુષ્ય નથી મળી આવતા ત્યારે બધા મનુષ્ય સાત પ્રકૃતિના બન્ધક થાય છે. આ પ્રથમ ભંગ થયે. સાતના બન્ધક સદેવ ઘણુ મનુષ્ય થાય છે. કિન્તુ જ્યારે એક આઠને પણ બન્ધક શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy