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प्रमेयबोधिनी टीका पद २३ सू. २ कर्मबन्धप्रकारनिरूपणम् वैमानिकः, कथं खलु भदन्त ! जीवाः अष्टौ कर्म प्रकृतीबंधनन्ति गौतम ! एवंचैव यावद् वैमानिकाः ॥ सू. २ ॥ ____टीका--अथ केन प्रकारेण कर्म प्रकृतीबंधातीति द्वितीयद्वार प्ररूपयितुमाह-'कह णं भंते ! जो वे अट्ठकम्मपगडीओ बंधइ ?' हे भदन्त ! कथम्-कया रीत्या खलु जीयः अष्टौ कर्मप्रकृतीबंधाति ? भगवानाह- गोयमा !' हे गौतम ! 'णाणावरणिज्जस्स कम्म स्स उदएणं दरिसणावरणिज्ज कम्मं णियच्छई' ज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयेन दर्शनावरणीय कर्म निगच्छति-निश्चयेन गच्छति उदय प्राप्नोति तथाचोत्कर्षावस्थ ज्ञानावरणीय कर्म उदयेनानुभवन् दर्शनावरणीय कर्म उदयेन वेदयते, तदनन्तरम्'दसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दसणमोहणिज्ज कम्मणियच्छई' दर्शनावरणीय
(कहं णं भंते ! नेरइए अट्टकम्मपगडीओ बंधइ ?) हे भगवन् ! नारक आठ कर्मप्रकृतियों को कैसे बांधता हैं? (गोयमा! एवं चेव) हे गौतम ! इसी प्रकार (एवं जाव वेमाणिए) इसी प्रकार वैमानिक तक।
(कहं णं भंते! जीवा अट्ठकपगडीओ बंधति?) हे भगवन् ! जीव आठ कर्म प्रकृतियां किस प्रकार बांधते हैं? (गोयमा! एवं चेव) हे गौतम ! इसी प्रकार (जाव वेमाणिया) यावत् वैमानिक।
टीकार्थ :- जीव किस प्रकार कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता है, यह दूसरा द्वार प्ररूपित किया जाता हैं
श्री गौतमस्वामी-हे भगवन् ! जीव किस प्रकार आठ कर्म प्रकृतियों का बंध करता है ?
_श्री भगवान्-हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव निश्चय से दर्शनावरणीय कर्म को प्राप्त करता है, अर्थात् जब ज्ञानावरणोय कर्म का उत्कृष्ट उदय होता है, तब जीव दर्शनावरणीय कर्म को उदय से बेदता है । दर्शनावरणीय कर्म के આઠ કર્મ પ્રકૃતિને બાંધે છે
(कहं ण भंते ! नेरइए अ8 कम्मपगडीओ बंधइ ?) हे भगवन्! ना२४ ४ ४भ प्रकृतियान वी शत मधे छ ? (गोयमा! एवं चेव) गौतम ! मेरा ५२ (एवं जाव वेमाणिए) मे પ્રકારે દ્વિમાનિક સુધી
(कह ण भंते जीवा अढ कम्मपगडीओ बंधंति ?) हम 1 13 भ प्रतियो वे मारे गधे छ ? (गोयमा! एवं चेव) हे गौतम! मे रे (जाव वेमाणिया) यावत् पैमान ટીકાર્ય - જીવ કેવા પ્રકારે કર્મ પ્રકૃતિને બન્ધ કરે છે, એ માટે બીજુ દ્વાર પ્રરૂપિત કરાય છે
શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન! જીવ કેવા પ્રકારે આઠ કર્મ પ્રકૃતિને બંધ કરે છે ?
શ્રી ભગવાન-હે ગૌતમ જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ઉદયથી જીવ નિશ્ચયે દર્શનાવરણીય કર્મને પ્રાપ્ત કરે છે, અથાત્ જ્યારે જ્ઞાનાવરણીય કર્મને ઉત્કૃષ્ટ ઉદય થાય છે, ત્યારે જીવ દર્શના વરણીય કર્મને ઉદયથી વેદે છે. દર્શનાવરણીય કર્મના ઉદયથી દર્શન મેહનીય કર્મને પ્રાપ્ત
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫