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प्रयमेबोधिनी टीका पद ३६ सू० १४ केवलिसमुद्घातगतक्षेत्रनिरूपणम् ११०२ तस्य ये चरमा निर्जरा पुद्गलाः सूक्ष्माः खलु ते पुद्गला प्रज्ञप्ता: ? श्रमणायुष्मन् ! सर्वलोकमपि च खलु स्पृष्ट्वा तिष्ठन्ति, छद्मस्थः खलु भदन्त ! मनुष्यस्तेषां निर्जरापुद्गलानां किञ्चिवर्णेन वर्ण गन्धेन गन्धं रसेन वा रसं सर्शन चा स्पर्श जानाति पश्यति ? गौतम ! नायमयः समर्थः, तत् के नार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-छमस्थः खल्लु मनुष्य स्तेषां निर्जरापुद्गलानां किश्चिद् वर्णन वर्णम्, गन्धेन गन्धम्, रसेन रसम्, स्पर्शन स्पर्श नो जानाति कर के रहते हैं ? (हंता गोयमा!) हां, गौतम ! (अणागारस्स भावियप्पणो केवलिसमुग्घाएणं समोहयस्स) भावितात्मा केवलिसमुद्घात से समयहत अनगार के (जे चरमा निजरा पोग्गला) जो चरम निर्जरापुदगल हैं (सुहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो!) हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं (सञ्चलोगं पि य णं फुसित्ताणं चिटुंति) सम्पूर्ण लोक को स्पर्श कर के रहते हैं _ (छउमत्थे णं भंते ! मणूसे) हे भगवन् ! छद्मस्थ मनुष्य (तेसि णिज्जरा पोग्गलाणं) उन निर्जरा पुदगलों के (किंचि) कुछ (वगणेणं) चक्षुइन्द्रिय से (वणं) वर्ण को (गंधेणं गंध) घाणेन्द्रिय से गंध को (रसेण वा रस) रसनेन्द्रिय से रस को (फासेणं वा फासं) अथवा स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श को (जाणइ पासइ ?) जानता देखता है ? (गोयमा! णो इणडे समढे) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है (से केणटेणं भंते ! एवं युच्चई छ उपत्थेणं मणसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं) हे भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा है कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा पुदगलों के (णो किंचि चण्णेणं वणं गंधेणं गंधं रसेणं २सं फासेणं फासं णो जाणइ केयलिसमुग्घाएण समोहयस्स) लावितामा पतिसमुद्धातथी सभपत मनाना (जे चरमा निज्जरा पाग्गला) रे य२म नि। इस छ (सुहुमाण ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो) हे श्रम ! हे आयुष्यमन्! ते पाले सूक्ष्म ४९८i छ (सव्वलोग पि य णं फुसित्ता ण चिटुंति) सपूए सोने २५श धरीने २९ छे.
(छउमत्थेण भंते ! मणूसे) हे भगवन् ! छभस्थ मनुष्य (तेसि णिज्जरापोग्गलाण) ते नि | सोना (किंचि) is (यण्णेण) यक्षुन्द्रियथा (वण्ण) ५९°न (गंधेण) प्राणेन्द्रियथा धने (रसेण वा रस) २सनेन्द्रियथा २सने (फासेण या फासं) A24। २५शेन्द्रियया २५शन (जाणइ पासइ) तणे देणे छ ?
(गोयमा णो इणद्वे समढे) , गौतम ! ये सथ समय नथी.
(से केणद्वेण भंते ! एवं बुच्चइ-छउमत्थेण मणूसे तेसि णिज्जरापोग्गलाण) मापन ! या हेतुथमे ४थु छ ? छ भस्थ मनुष्य ते निग२ पुगतान (णो किंचि वण्णेण वण्ण, गंधेण गंध रसेण रसं फासेण फासं णो जाणइ पासइ ?) यित् यक्षुन्द्रिययी पन, ધ્રાણેન્દ્રિયથી ગંધને, રસેન્દ્રિયથી રસને, સ્પર્શેન્દ્રિયથી સ્પર્શને નથી જાણતા નથી દેખતા ?
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫