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________________ प्रमेयपोधिनी टीका पद १८ सू) ९ सम्यक्त्ववतां सम्यक्त्वकालनिरूपणम् तत्र खलु यः स सादिसपर्सवसितः स जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन षट् षष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, मिथ्यादृष्टिः खलु भदन्त ! पृच्छा, गौतम ! मिथ्यादृष्टि स्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अनादिकोऽपर्यवसितो वा, अनादिको वा सपर्यवसितः, सादिको वा सपर्यवसितः, तत्र खलु यः स सादिकः सपर्यवसितः स जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन अनन्त कालम्, अनन्ता उत्सपिण्यवसपिण्यः कालतः, क्षेत्रतः अपार्द्धः पुद्गलपरिवों देशोनः, सम्यगमिथ्यादृष्टिः खलु पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्तम्, द्वारम् ९ सू०९।। उनमें जो सादि सपर्यवसित है (से जहण्णेणं अंतोमुहुर्त) वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त (उक्कोसेर्ण छावहिं सागरोवमाइं साइरेगाई) उत्कृष्ट सातिरेक छयासठ सागरो. पम तक (मिच्छदिट्ठी णं भंते ! पुच्छा ?) हे भगवन् ! मिथ्यादृष्टि के विषय में पृच्छा ? (गोयमा ! मिच्छादिही तिविहे पण्णत्ते) हे गौतम ! मिथ्यादृष्टि जीव तीन प्रकार के कहे हैं (तं जहा-अणाइए अपज्जवसिए अणादिए वा सपज्जव सिए, सादिए वा सपजवसिए) वे इस प्रकार-अनादि अनन्त, अनादि सान्त और सादि सान्त (तत्थ णं जे से सादिए सपजवसिए) उनमें जो सादि सान्त है (से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं) वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक, उत्कृष्ट अनन्त काल तक (अणंताओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ) काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियां (खेतओ अवढं पोग्गलपरियटुं देसूणं) क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्ध पुद्गल परिवर्तन तक (सम्मामिच्छादिट्ठीणं पुच्छा?) सम्पमिथ्यादृष्टि के विषय में प्रश्न ? (गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्त) हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त (उक्कोसेणं अंतोमुहुतं) उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त द्वार ९। सपज्जवसिए) तमाम रे सा स५ सित छ (से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं ) धन्य मन्तभुत सुधी ( उक्कोसेणं जावद्रि सागरोवमाई ) कृष्ट साति२४ छास सा५म सुधी. (मिच्छादिद्वी णं भंते ! पुच्छा) सावन् मिथ्या दृष्टिना विषयमा छा ? (गोयमा! मिच्छ दिदी तिविहे पण्णत्ते) गौतम ! भि6ि2 पत्र प्रारना । छ (तं जहा अणाइर अपज्जवसिए वा अणाइए सपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवासिए) ते 40 मरेमनाहि मनन्त, साना सान्त भने साहि सान्त (तत्थ णं जेसे सादीए सपज्जवसिए) तमां २ स सान्त छ (से जहण्णेणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसे गं अणंत कालं) ते न्यथा अन्तभुत सुधी, Gट मनात ४ सुधी (अणंताओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीजो कालओ) ४जनी अपेक्षा मनन्त सपि -- असमिया (खेत्तओ अवड्ढं पोगालपरियट्ट देसूर्ण) ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ દેશને અપાઈ પુદ્ગલ પરિવર્તન સુધી. (सम्मामिच्छादिद्वीणं पुच्छा) सभ्य याष्टिना विषयमा प्रश्न ? (गोयमा जहण्णे गं अंतोमुहुत्त) 3 गौतम! धन्य मन्तभुत (उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं) Gट सन्तति' () श्री. प्रशान। सूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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