SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १७ सू० १४ नैरयिकावधिज्ञेयक्षेत्रपरिमाणनिरूपणम् १८९ क्षेत्रं पश्पति, वितिमिरतरकं क्षेत्र जानाति वितिमिरतरकं क्षेत्रं पश्यति, विशुद्धतरकं क्षेत्र जानाति, विशुद्धतरक क्षेत्रं पश्यति, तत् केनार्थेन भदन्त ! एव मुच्यते-नीललेश्यः खलु नैरयिकः कृष्णलेश्य नैरयिकं प्रणिधाय यावद् विशुद्धतरक क्षेत्रं जानाति, विशुद्धतरक क्षेत्र पश्यति ? तत् यथानाम कश्चित् पुरुषो बहुसमरणीयाद् भूमिभागात् पर्वतमारुह्य सर्वतः समन्तात् समभिलोकेत ततः खलु स पुरुषो धरणितलगतं पुरुषं प्रणिधाय सर्वतः समन्तात् समभिलोकमानः समभिलोकमानो बहुतरकं क्षेत्रं जानाति यावद विशुद्धरकं क्षेत्रं पश्यति, तत् जानता है, दूरतर क्षेत्र को देखता है (वितिमिरतरकं खेत्तं जाणइ) निर्मलतर क्षेत्र को जानता है (वितिमिरतरगं खेत्तं पासइ) निर्मलतर क्षेत्र को देखता हैं (विसुद्धतरगं खेत्तं जाणइ, विसुद्धतरगं खेत्तं पासइ) विशुद्धतर क्षेत्र को जानता है, विशुद्धतर क्षेत्र को देखता है (से केणढे णं भंते ! एवं वुच्चइ) किस हेतु से भगवन् ! ऐसा कहा जाता है कि (नीललेस्से णं नेरइए कण्हलेस्सं नेरइयं पणिहाय जाव विसुद्धतरगं खेत्तं जाणइ, विसुद्धतरगं खेत्तं पासइ) नीललेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा यावत् विशुद्धतर क्षेत्र को जानता है, विशुद्धतर क्षेत्र को देखता है ? (से जहानामए केइ पुरिसे) कुछ भी नाम वाला पुरुष (बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ) बहुत सम एवं रमणीय भूमिभाग से (पव्वयं दुरुहित्ता) पर्वत पर चढ कर (सव्वओ समंता समभिलोएज्जा) सब दिशा-विदिशाओं में अवलोकन करे (तए णं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाय) तब वह पुरुष भूतल पर रहे हुए पुरुष की अपेक्षा (सत्रभो समंना समभिलोए माणे २) सब तरफ देखता-देखता (बहु. तरगं खेत्तं जाणइ जाव विसुद्धतरगं खेत्तं पासइ) बहुतर क्षेत्र को जानता है, यावत् विशुद्धतर क्षेत्र को देखता है (से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चई) मिरतरगं खेत्तं जाणइ) निभगत२ क्षेत्रने छ (वितिमिरतरगं खेतं पासइ) निभातर क्षेत्र हेथे छ (विसुद्धतरगं खेत्तं जाणइ, विसुद्धतरगं खेत्तं पासइ) विशुद्धतर क्षेत्र न छ, विशद्धत क्षेत्रन थे छ (से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ) ॥ तुथी भगवन् ! से ४उवाय छ : (नीललेस्सेणं नेरइए कण्हलेसं नेरइयं पणिहाय जाव विसुद्धतरगं खेत्तं जाणइ विसुद्धतरगं खेत्तं पासई ?) नासवेश्या ना२४ ४७४ोश्या ना२४ी अपेक्षा यावत विशुद्धत२ क्षेत्रने छ, विशुद्धत२ क्षेत्रने मे छे ? (से जहा नामए केइ पुरिसे) ४ ५५ नामाणे ५३५ (बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ) घ! सम तभ०४ २भाय भूमि माथी (पव्वयं दुरुहित्ता) पर्वत ५२ यान (सव्वओ समंता समभिलोएज्जा) मधी शिवशायमा मन ४२ (तएणं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाय) त्यारे ते पु३५ भूतल ५२ २९सा पु३५नी. अपेक्षाये (सव्वओ समंता समभिलोएमाणे) मधी त२६ तi (बहुतरगं खेत्तं जाणइ जाव विसुद्धतरगं खेत्तं पासइ) या मा श्री प्रशानसूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy