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________________ ७२८ प्रज्ञापनासूत्रे अनन्तानि, कियन्ति बद्धानि ? अष्टौ, कियन्ति पुरस्कृतानि ? अष्टौ वा, षोडश वा, चतुर्विंशति , संख्येयानि वा, सर्वार्थसिद्धकदेवस्य अतीतानि, अनन्तानि, बद्धानि अष्टौ पुरस्कृतानि aष्टी, नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्ति द्रव्येन्द्रियाणि अतीतानि ? गौतम ! अनन्तानि, कियन्ति वद्धानि ? गौतम ! असंख्येयानि, किन्ति पुरस्कृतानि ? अनन्तानि, एवं यावद् ग्रैवेयकदेवानाम्, नवरं मनुष्याणां बद्धानि स्यात् संख्येयानि, स्याद् असंख्येयानि, विजयवैजयन्तजयन्तापराजित देवानां पृच्छा, गौतम ! अतीतानि अनन्तानि, बद्धानि असंख्येयानि, पुर(गोयमा ! अनंता) हे गौतम! अनन्त (केवइया बढेलगा ?) बद्ध कितनी ? (अ) आठ (केवइया पुरेक्खडा) कितनी आगामी ? (अट्ठ वा, सोलस वा, चउवीसा वा, संखेज्जा वा) आठ सोलह, चौवीस, या संख्यात (सव्वसिद्धदेवस्स) सर्वासिद्ध देवकी (अतीता अनंता) अतीत अनन्त (बद्वेल्लगा अट्ठ) बद्ध आठ (पुरेक्खडा अट्ठ) आगामी आठ । (नेरइयाणं मंते ! केवइया दव्विदिया अतीता ?) हे भगवन् ! नारको की अतीत द्रव्येन्द्रियां कितनी ? (गोयमा ! अनंता) हे गौतम ! अनन्त (केवइया बलगा ?) बद्ध कितनी ? (गोयमा ! असंखेज्जा) हे गौतम ! असंख्यात (केवइया पुरेक्खडा) आगामी कितनी ? (गोयमा ! अनंता) हे गौतम ! अनन्त ( एवं जाब गेवेज्जगदेवाणं) इसी प्रकार यावत् ग्रैवेयक देवों की (नवर) विशेष (मणूसाणं बद्धे लगा सिय संखेज्जा, सिय असंखेज्जा) मनुष्यों की बद्ध स्यात् संख्यात स्यातू असंख्यात (विजय वे जयंत जयंत अपराजितदेवाणं पुच्छा ?) विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों के विषय में पृच्छा ? (गोयमा ! विनय, वैश्यन्त, भ्यन्त, अपराजित देवनी अतीत इन्द्रियो डेंटली ? (गोयमा ! अणंता) हे गौतम! अनन्त (केवइया बल्लगा) मद्ध डेंटली (अट्ठ) आठ (केवइया पुरेक्खडा) डेटसी माणाभी (अट्ट वा, सोलस वा, चवीसा वा, संखेज्जा वा) आड, सोण, शोपीस अथवा संध्यात ( सब सिद्धदेवस्स) सर्वार्थ सिद्ध देवनी (अतीता अनंता) अतीत अनंत (बडेललगा अटु) द्ध भई ( पुरेक्खडा अट्ठ) भागाभी मा (नेरइयाणं भंते ! केवइया दुव्वि दिया अतीता, ?) हे भगवन् ! नाश्नी अतीत द्रव्य इन्द्रियो डेंटली छे ? (गोयमा ! अनंता) हे गौतम! अनन्त (केवइया बल्लगी ?) मद्ध डेंटली (गोयमा ! असंखेज्जा) हे गौतम! असण्यात (केवइया पुरेक्खडा) भागाभी डेटसी (गोयमा ! अनंता) हे गौतम! अनन्त ( एवं जाव गेवेज्जगदेवाणं ) थे रीते यावत्येवेय देवानी (नवर) विशेष ( मणूसाणं बल्लगा सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा) मनुष्योनी मद्ध स्यात् संख्यात, स्यात् असण्यात (विजयवेजयं तजयंतअपराजियदेवाणं पुच्छ । १) विन्य वैश्यन्त भयंत ाने अपराजित हेबाना विषयभां पृच्छा ? (गोयमा ! अतीता अनंता, श्री प्रज्ञापना सूत्र : 3
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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