SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 642
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रज्ञापनासूत्रे प्याणाश्च स्पर्शनेन्द्रियं षइविध संस्थानसंस्थितं वक्ष्यमाणषट्प्रकाराकारव्यवस्थितं प्रज्ञप्तम्, 'तं जहा-समचउरंसे, निग्गोहपरिमंडले सादीखुज्जे वामणे हुंडे' तद्यथा समचतुरस्रम्, न्यग्रोधपरिमण्डलम् सादि कुब्नम्, वामनम्, हुण्डम्, 'वाणमंतरे जोइसियवेमाणियाण जहा असुरकुमाराणं' वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाना मिन्द्रियवक्तव्यता यथा असुरकुमाराणामुक्तातयैव ॥सू ० ३॥ मूलम्- 'पुट्ठाई भंते ! सदाइं सुणेइ, अपुट्टाइं सदाइंसुणेइ ? गोयमा! पुट्ठाई सदाइं सुणेइ, नो अपुढाई सदाइं सुणेइ, पुट्ठाई भंते ! रूवाई पासइ, अपुटाइं पासइ ? गोयमा ! नो पुटाई रूवाइं पासइ, अपुटाई रूवाइं पासइ, पुट्टाई भंते ! गंधाइं अग्घाइ, अपुटाई गंधाई अग्घाइ ? गोयमा ! पुटाई गंधाइं अग्घाइ, नो अपुटाई अग्घाइ, एवं रसाण वि फासाण वि, णवरं रसाइं अस्साएइ, फासाइं पडिसंवेदेइ त्ति अभिलावो कायवो, पविटाई भंते ! सदाइं सुणेइ अपविट्ठाई सदाइं सुणेइ ? गोयमा ! पविट्टाई सदाइं सुणेइ, नो अपविट्ठाइं सदाइं सुणेइ, एवं जहा पुट्टाणि तहा पविटाणि वि' ॥सू० ४॥ ___ छाया-स्पृष्टान भदन्त ! शब्दान् शृणोति, अपृष्टान् शब्दान् शृणोति ? गौतम ! स्पृष्टान् शब्दान् शणोति, नो अस्पृष्टान् शब्दान् शृणोति, स्पृष्टानि भदन्त ! कपाणि पश्यति, अन्तर है कि पंचेन्द्रिय तिर्यचों और मनुष्यों की स्पर्शनेन्द्रिय आगे कहे जाने गले छहों संस्थानों वाली होती है । वे संस्थान इस प्रकार हैं- समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, कुन्जक, वामन और हुंडक संस्थान । वाणब्यन्तरों, ज्योतिषिकों और वैमानिक देवों की इन्द्रिय वक्तव्यता असुरकुमारों के जैसी कहनी चाहिए। स्पृष्टद्वारबक्तव्यता शब्दार्थ-(पुट्ठाई भंते ! सद्दाई सुइ ? अपुढाई सुणेइ ?) हे भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शब्दों को सुनती है या अस्पृष्ट शब्दों को सुनती है ? (गोयमा! અને મનુષ્યની સ્પર્શનેન્દ્રિય આગળ કહેવાશે તે છએ સંસ્થાનેવાળી હોય છે. તે સંસ્થાન આ પ્રકારે છે- સમચતુરસ, ચોધ પરિમંડલ, સાદિ, કુંજક, વામન અને હંડક સંસ્થાન. વાણ વન્તર, તિષ્કો અને વૈમાનિક દેવોની ઈદ્રિય વક્તવ્યતા અસુરકુમારે જેવી કહેવી જોઈએ. પૃષ્ટ દ્વાર વક્તવ્યતા शा--(पुट्ठाई भंते ! सदाई सुणेइ ? अपुढाई सद्दाई सुणेइ ?) 8 लापन श्रोत्रे श्री. प्रशान। सूत्र : 3
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy