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प्रमेयबोधिनी टीका पद ११ सू० १२ भाषाद्रव्यनिसर्जननिरूपणम् पकतया निसृजति मृषाभाषकतया निसृजति, नो सत्यमृषाभाषकतया निसृजति नोअसत्यमृषाभापकतया निसृजति, एवम्-सत्यमृषाभाषकतयापि असत्यमृषाभाषकतयापि एवञ्चैव, नवरम् असत्यमृषाभाषकतया विकलेन्द्रिया स्तथैव पृच्छयन्ते यानि चैव गृहाति तानि चैव निसृजति, एवम् एते एकत्वपृथक्त्वका अष्टदण्डका भणितव्याः॥ १२॥
टीका-अथ भाषाद्रव्याणां विसर्जन विशेषवक्तव्यतां प्ररूपयितुमाह-'जीवे णं भंते ! जाई दव्याई सच्चभासत्ताए गिण्हइ ताई कि सच्चभासत्ताए निसिरइ ?' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! सच्चामोसभासत्ताए, असच्चामोसभासत्ताए निसरइ ?) मृषाभाषा सत्यामृषा भाषा, या असत्यामृषा भाषा के रूप में निकालता है ? (गोयमा ! नो सच्चभा सत्ताए निसरति, मोसभासत्ताए निसरति, णो सच्चामोसमासत्ताए निसरति, नो असच्चामोसभासत्ताए निसरति) हे गौतम ! सत्यभाषा के रूप में निकालता नहीं है, मृषाभाषा के रूप में निकालता है, सत्यामृषा भाषा के रूप में नहीं निकालता है, असत्यामृषा भाषा के रूप में भी नहीं निकालता
(एवं सच्चामोसभासत्ताए वि, असच्चामोसभासत्ताए वि एवं चेव) इसी प्रकार सत्यामृषा भाषा के रूप में और इसी प्रकार असत्यामृषा भाषा के रूप में भी (नवरं असच्चामोसभासत्ताए विगलिंदिया तहेव पुच्छिज्जति) विशेष असत्यामृषा भाषा के रूप मे विकलेन्द्रियों की उसी प्रकार पृच्छा करनी चाहिए (जाए चेव गिण्हति, ताए चेव निसरति) जिस भाषा के रूप मे ग्रहण करता है, उसी भाषा के रूप में निकालता है (एवं चेव एते एगत्तपुत्तिया अट्टदंडगा भाणियव्वा) इसी प्रकार ये एक बचन बहुवचन से आठ द डक कहने चाहिए।
टीकार्थ-अब गृहीत भाषा द्रव्यों को निकालने के विषय मे विशेष वक्त ताए निसरइ १) भृषामाषा, सत्य। भृषाला। २०१२ असत्या भृषा मापान। ३५मा ४४ छ ? (गोयमा ! नो सच्चाभासत्ताए निसरति, मोसभासत्ताए निसरति, णो सच्चामोसभासत्ताए निसरति, नो असच्चामोसमासत्ताए निसरति) हे गौतम! सत्य भाषान। ३५मा नथी કાઢતા, મૃષા ભાષાના રૂપમાં કાઢે છે સત્યામૃષા ભાષાના રૂપમાં નથી કહાડતા અસત્યા મૃષા ભાષા પણાથી પણ નથી કહાડતા.
(एवं सच्चामोसमासत्ताए वि. असच्चामोसमासत्ताए बि एवं चेव) से प्रारं सत्या भृषा मापान ३५मा भने से प्रारं असत्या भृषा भाषान। ३५मा ५१ सभा (नवरं असच्चामोसमासत्ताए विगलिं दिया तहेव पुच्छिज्जंति) विशेष सत्याभूषा भाषन। ३५मां विन्द्रियोनी से प्रारे १२छ। ४२वी न (जाए चेव गिण्हति, ताए चेव निसरति) २ सापान॥ ३५भां यह रे छ, ते मापान। ३५मा महा२ ४१४ छ (एव चेव एते एगत्तपुहुत्तिया अटुदंडगा भाणियव्वा) मे ४२ मे क्यन-मययनयी ४ ४ ४ नये,
ટીકાર્થ–હવે ગ્રહીત ભાષા દ્રવ્યને કાઢવાના વિષયમાં વિશેષ વક્તવ્યતા કહે છે प्र० ५१
श्री प्रशान। सूत्र : 3