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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ११ सू०५ भाषाकारणादिनिरूपणम् यथा आवेशवशात् यःकश्चित् तीर्थकृदादीनामपि निन्दा भाषते तदीया सा भाषा द्वेषानिःमृतत्वात् मृषा व्यपदिश्यते, एवम्-'हासणिस्सिया७' हास्यनिःसृता-हास्यवशात् निर्गता भाषा मृषा भवति यथा परिहासवशात् कश्चिदनृतभाषणं कुरुते तदीया सा भासा मृषा व्यपदिश्यते, एवम्-'भयणिस्सिया८' भयनिःसृता-भयानिर्गता भाषा मृषा भवति यथा यः कश्चिच्चौरादिभ्यो भीतः सन् अयुक्तं भाषते तदीया सा भाषा भयनिर्गतत्वाद् मृषा व्यपदिश्यते, तथा 'अक्खाइया णिस्सिया९' आख्यायिकानिःसृता भाषा मृषा भवति यथा यःकश्चित कथाख्यानवशादनृतं भाषते तदीया सा भाषा आख्यानकवशाद निर्गतत्वाद मृषा व्यपदि श्यते, एवम्-'उवघाइयणिस्सिया१०' औपघातिकनिःसृता उपघातवशानिर्गता भाषा मृषा भवति यथा याकश्चिद उपघातवशात् तस्करस्त्वमित्यादि भाषते तदीया सा भाषा उपघातनिर्गतत्वादू मृषा व्यपदिश्यते, अथैतासामपि मृषा भाषाणां संग्रहणी गाथामाह-'कोहे माणे इस की भाषा द्वेष से निकली होने के कारण मृषा कहलाती है। (७) हास्यनिस्ता-हंसी-मजाक में बोली जाने वाली भाषा भी असत्य है, अतः यदि कोई परिहास के वशीभूत होकर असत्य भाषण करता है तो उसकी भाषा मृषा है। (८) भयनिस्ता-भय से निकली भाषा भी असत्य होती है। कोई चोरों आदि से डर कर अयुक्त भाषण करता है तो इस की भाषा भयनिर्गत होने से मृषा कहलाती है। (९) आख्यायिकानिमृत- जो कोई कथा-कहानी कहता हुआ असत्य भाषण करता है, उसकी भाषा आख्यायिका निसृत कहलाती है और ऐसी भाषा असत्य है। ___ (१०) औपघातिकनिमृता-उपघात के कारण निकली हुई भाषा मृषा कहलाती हैं । 'तू चोर है। इस प्रकार की भाषा उपघातनिसृत होने से मृषा है। इन मिथ्या भाषाओं की संग्रहणी गाथा कहते हैं-(१) क्रोध (२) मान (३) (૭) હાસ્યનિવૃતા-મશ્કરીમાં બોલાએલી ભાષા પણ અસત્ય હોય છે, તેથી યાદિ કઈ પરિહાસને વશ થઈને અસત્ય ભાષણ કરે છે તે તેની ભાષા મૃષા છે. (૮) ભયનિસૃતા–ભયથી નીકળેલી ભાષા પણ અસત્ય હોય છે. કેઈ ચોરે વિગેરેથી ડરીને અયુક્ત ભાષણ કરે છે, તે તેની ભાષા ભયનિર્ગત હવાથી મૃષા કહેવાય છે ૯) આખ્યાયિકા નિરુતજે કઈ કથા કહાણી કરતા અસત્ય ભાષણ કરે છે, તેની ભાષા આખ્યાયિકાનિવૃત કહેવાય છે અને એવી બેલી અસત્ય છે. (१०) मोपधाति निस्ता-धातना ४२0 नाणेसी भाषा भूषा ४३याय छे. 'तु ચર છે એ પ્રકારની ભાષા ઉપઘાત નિસુત હોવાથી મૃષા છે. ॥ भिथ्या सापा-यानी सी ॥ ४ छे-(१) ओष (२) माय॥ (3) भान શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૩
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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