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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ११ सू० ३ भाषापदनिरूपणम् ____२६५ यावत् नान्यत्र संज्ञिनः, अथ भदन्त ! उष्ट्रो यावद् एडको जानाति इदं मे स्वामिकुलमिति ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, यावद नान्यत्र संज्ञिनः, अथ भदन्त ! उष्ट्रो यावद् एडको जानाति अयं मे भर्तृ दारकः, अयं मे भर्तृदारिका इति ? गौतम ! नायमर्थः समर्थों यावत् नान्यत्र संज्ञितः ॥ सू० ३॥ टीका-पूर्व भाषा प्ररूपिता, तत्पस्तावात् भाषा विषयमेव किश्चिद् वैशिष्टयं प्रतिपादयितुं प्रथमं भाषाद्वैविध्यं प्ररूपयवाह-द्विविधा खलु भाषा भवति-एका सम्यगुपयुक्तस्य संयतस्य, द्वितीया अनुपयुक्तस्यासंयतस्य, तत्र यः पूर्वापरानुसम्धानपाटवशाली श्रुतज्ञानेन अर्थान् समर्थ नहीं सिवाय संज्ञी के। (अह भंते ! उटूटे जाव एलए जाणति- अयं से अतिराउलेत्ति ?) भगवन् ! ऊंट यावत् भेड जानता है कि यह मेरे स्वामी का घर है ? (गोयमा ! णो इणढे समटे जा णण्णस्थ सपिणणो) (गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, यावत् संज्ञी को छोड कर। ___ (अह भंते ! उट्टे जाव एलए जागति-अयं मे भटिदारए, अयं मे भटिदारियत्ति ?) हे भगवत् ! ऊंट यावतू भेड जानता है-यह मेरे स्वामी का पुत्र है, यह मेरे स्वामी को पुत्री है ? (गोगमा ! जो इणटूठे समढे जाव णण्णस्थ सगिणणो) गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, यावत संज्ञी को छोड कर । टीकार्थ-पहले भाषा का निरूपण किया, अब प्रकरण को लेकर भाषा के विषय में ही कुछ विशेष बातों की प्ररूपणा की जाती है-भाषा दो प्रकार की होती है-सम्यक प्रकार से उपयुक्त अर्थात् उपयोग वाले संयमी की भाषा, दूसरी अनुपयुक्त अर्थात् उपयोग शून्य असंयत जन की भाषा । जो पूर्वापरसंबंध को समझ कर एवं श्रुतज्ञान के द्वारा अर्थों का विचार करके बोलता है, __ (अह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणति अयं मे अतिराउलेत्ति) सावन् ! 2 यावत् १३ मा छे २भा२।२५।भानु ५२ छ ? (गोयमा ! णो इणद्वे समढे जाव णण्णत्थि सण्णिणो) 3 गौतम ! A2 समय नथी सज्ञी सिवाय (अह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणति अयं मे भट्टिदारए अयं मे भट्टिदारियत्ति) ભગવદ્ ! ઊંટ યાવત્ વરૂ જાણે છે આ મારા સ્વામીને પુત્ર છે. આ મારા સ્વામીની પુત્રી छ ? (गोयमा ! णो इणठे समठे जाव णण्णत्थ सण्णिणो) 3 गौतम! | 24 સમર્થ નથી, યાવત્ સંસી સિવાય ટીકાથ–પહેલા ભાષાનું નિરૂપણ કર્યું, હવે પ્રકરણને લઈને ભાષાના વિષયમાં કાંઈક વિશેષ વાતની પ્રરૂપણ કરાય છે–ભાષા બે પ્રકારની હોય છે–સમ્યક્ પ્રકારથી ઉપયુકત અર્થાત્ ઉપયોગવાળા સંયમીની ભાષા, બીજી અનુપયુક્ત, અર્થાત્ ઉપગ શૂન્ય અસં. યત માણસની ભાષા. જે પૂર્વાપર–સંબન્ધને સમજીને તેમજ શ્રુતજ્ઞાનના દ્વારા અર્થોનો प्र० ३४ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૩
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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