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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १० सू. ५ द्विप्रदेशादिस्कन्धस्य चस्माचरमत्वनिरूपणम् १६९ ध्यपदिश्यते स्थापना- ०००° ‘णो चरिमे य अचरिमाइं य अवत्तव्वयाई य २२' सप्त. प्रदेशिकः स्कन्धो नो 'चरमश्चाचरमौ चावक्तव्यौ य' इति व्यपदिश्यते प्रागुक्तयुक्तेः, 'सिय चरमाइं य अचरमे य अवत्तव्यए य २३' स्यात्-कदाचित् सप्तप्रदेशिकः स्कन्धश्चरमौ चाच. रमवावक्तव्यश्च' इति व्यपदिश्यते स्थापना :: : ० 'सिय चरमाइं य अचरमे य अवत्तव्ययाइं य २४' सप्तप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात्-कदाचित् 'चरमौ चाचरमश्चावक्तव्यौ च' इति व्यपदिश्यते स्थापना-.:: : 'सिय चरमाई य अचरमाइं य अवत्तव्वए य २५' सप्तप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात्-कदाचित् 'चरमौ चाचरमौ चावक्तव्यश्च' इति व्यपदिश्यते स्थापना-: : 'सिय चरमाइं य अचरमाई य अवत्तव्वयाइं २६' सप्तप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात्-कदाचित् 'चरमौ चाचरमौ चावक्तव्यौ च' इति व्यपदिश्यते स्थापना-० ०० : : अत्रेदमवसेयम्-यतः सप्तप्रदेशिकः स्कन्ध एकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहते एवमेव द्वयोराकाश प्रदेशयोरवगाहते, एवं विष्वपि चतुर्षु अपि पश्चस्वपि षट्स्वपि सप्तस्वपि चावगाहते तत एव कहा जा सकता है, स्थापना इस प्रकार है-° • ° सप्त प्रदेशी स्कंध 'चरम-अचरमौ-अवक्तव्यौ' नहीं कहा जाता है। उसे कथंचित् 'चरमौ-अचरम-अवक्तव्य' कह सकते हैं, उसकी स्थापना यों है-:: ० सप्तप्रदेशी स्कंध को कथंचित् 'चरमो-अचरम-अवक्तव्यो' कहा जा सकता है, उसकी स्थापना इस प्रकार है-०::: उसे 'चरमो-अचरमो-अवक्तव्य' भी कहा जा सकता है । स्थापना इस प्रकार है-:: . उसे 'चरमौ-अचरमौ-अवक्तव्यो' भी कहते हैं। उसकी स्थापना इस प्रकार है-० ० ०: तात्पर्य यह है कि कोई सप्तप्रदेशी स्कंध आकाश के एक प्रदेश में रहता है, कोई दो आकाशप्रदेशों में रहता है, इसी प्रकार कोई तीन में, चार में, पांच में, छह में और कोई सात प्रदेशों में भी रहता है । इसी कारण पूर्वोक्त भंग उसमें संभव होते हैं। ४ारे छ-०० ००० ससप्रदेशी २४.५ चरम अचरमौ अवक्तव्यौ. नथी ४ी शता भने ४थायितू 'चरमौ अचरम अवक्तव्य ही शहीये छीयतेनी स्थापना पाम छ-:::. ससशी २४.धने ३२ यित् 'चरमौ अचरम अवक्तब्यौ ४डी शय छ, तनी स्थापना । शते छ-०:: : तेन चरमौ अचरमौ-अवक्तव्य पy ही शय छे. तेनी स्थापना । शत छ-: :: तेने 'चरमौ-अचरमौ-अवतव्यौ ५५४ ४९ छ तेनी स्थापना ॥ मारे छ-००००० તાત્પર્ય એ છે કે કેઈ સસપ્રદેશીસ્ક આકાશના એક પ્રદેશમાં રહે છે, કેઈ બે આકાશ પ્રદેશમાં રહે છે, એ પ્રકારે કઈ ત્રણમાં, ચારમાં, પાંચમ, છમાં અને કઈ સસપ્રદેશમાં પણ રહે છે. એ જ કારણે પૂર્વોક્ત ભંગ તેમાં સંભવિત થાય છે. प्र० २२ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૩
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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