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________________ १६२ प्रज्ञापनासूत्रे वक्ष्यमाणाष्टात्रिंश स्थपनारीत्या चतुर्यु आकाशप्रदेशेषु अवगाहते तत्र द्वौ द्वौ परमाणू दुपो राकाशप्रदेशयोर्वर्तेते, एकः परमाणुस्तयोरेव समश्रेणिस्थे तृतीये आकाशप्रदेशे वर्तते, एकत्र विश्रेणिस्थे आकाशप्रदेशे तदा आद्यप्रदेशावगाढौ द्वौ परमाणू चरमः, तृतीयप्रदेशावगाढश्च परम इति द्वौ चरमौ, द्वितीयप्रदेशावगाढौ द्वौ परमाणू मध्यवर्तित्वात् अचरमः, विश्रेणि स्थस्तु एकः परमाणुरवक्तव्यः इति तत्समुदायात्मक पदादेशिक स्कन्धोऽपि 'चरमौ चाचरमश्रावक्तव्यश्व इति-व्यपदिश्यते । 'सिय चरमाई य अचरमेय अवत्तव्वयाइं य २४' पट. पदेशिकः स्कन्धः स्यात्- कदाचित् चरमौ चाचरमश्च अवक्तव्यौ च' इति ब्यपदिश्यते तथाहि यदा षट्प्रदेशिक स्कन्धो वक्ष्यमाणैकोनचत्वारिंशस्थापनारीत्या ३९ समश्रेण्या विश्रेण्या च पत्रसु आकाशप्रदेशेषु अवगाहते तत्र त्रिषु आकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेषु आये प्रदेशे सार चार आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है, उनमें से दो-दो परमाणु दो आकाशप्रदेशों में रहते हैं, एक परमाणु उन्हीं की समणि में स्थित तीसरे आकाशप्रदेश में रहता है और एक परमाणु विश्रेणिस्थ आकाशप्रदेश में रहता है, तब प्रथम प्रदेश में अवगाढ दो परमाणु 'चरम' कहे जाते हैं, तीसरे प्रदेश अवगाढ एक परमाणु भी 'चरम' कहलाता है, इस प्रकार दोनों चरम 'चरमो' कहवाए, दूसरे प्रदेश में अवगाढ दो परमाणु मध्यवर्ती होने से 'अचरम' और यिश्रेणिस्थ एक परमाणु 'अवक्तव्य' कहलाता है। सबका समुदायरूप षट्प्रदेशी स्कंध 'चरमो-अचरम-अवक्तव्य' कहा जाता है। षट्प्रदेशी स्कंध कथंचित् चरमो-अचरम-अवक्तव्यौ' भी कहा जाता है। वह इस प्रकार-जब षटप्रदेशी स्कंध आगे कही जाने वाली उनचालीसवीं स्थापना के अनुसार समणि और विश्रेणि से पांच आकाशप्रदेशों में अवगाहन करता है और उनमें से समश्रेणि में स्थित तीन आकाशप्रदेशों में से प्रथम સ્થાપનાના અનુસાર ચાર આકાશ પ્રદેશમાં અવગાઢ થાય છે, તેમાંથી બે-બે પરમાણુ બે આકાશ પ્રદેશમાં રહે છે, એક પરમાણુ તેઓની સમશ્રેણીમાં સ્થિત ત્રીજા આકાશ પ્રદેશમાં રહે છે અને એક પરમાણુ વિશ્રેણી આકાશ પ્રદેશમાં રહે છે. ત્યારે પ્રથમ પ્રદેશમાં અવगाद मे ५२मा 'चरम' उपाय छ, त्रीत प्रदेशमा १३ से ५२मा 'चरम' वाय छे से प्रारे भन्ने 'चरम-चरमौ, हवाया, भी प्रदेशमा अढ मे५२मा मध्यवती पाथी अचरम भने विश्रेणिस्थ से ५२म। 'अवक्तव्य वाय छे. अधाना समुदाय ३५ षट्प्रहे. २४५ "चरमौ-अचरम-अवक्तव्य" उपाय छे. पाशी २४न्ध थयित् 'चरमौ-अचरम-अवक्तव्यो" पण हेवाय छे. ते मा प्रकारे જ્યારે પહ્મદેશી સ્કન્ધ આગળ કહેવાનારી ગણ ચાલીસમી સ્થાપનાના અનુસાર સમશ્રેણી અને વિશ્રણથી પાંચ આકાશ પ્રદેશમાં અવગાહન કરે છે અને તેમાંથી સમશ્રેણીમાં સ્થિત ત્રણ આકાશ પ્રદેશમાંથી પ્રથમ પ્રદેશમાં એક પરમાણુ, બીજા પ્રદેશમાં એક પર શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૩
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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