________________
प्रबोधिनी टीका पद १० सू० ५ द्विप्रदेशादिस्कन्धस्य चरमाचरमत्वनिरूपणम्
१६१
चरमश्रावक्तव्यश्च' इति व्यपदिश्यते, 'नो चरमे य अचरमे य अवत्तव्त्रयाई य २०' नो 'चरमश्राचरमथावक्तव्यौ च' इति व्यपदिश्यते, अयश्च विंशतितमः 'चरमश्चाचरमश्रावक्तव्यौ च' इति भङ्गो वक्ष्यमाण पञ्चत्रिंशस्थापनारीत्या ३५ सप्तप्रदेशिकस्यैव स्कन्धस्य उपपद्यते नो षट्प्रदेशिकस्येति भावः, 'नो चरमे य अचरमाई य अवत्तव्वए य २१' नो वा षट्प्रदेशिकः स्कन्धः 'चराचरमो चावक्तव्यश्च' इति व्यपदिश्यते, वक्ष्यमाण पत्रिशस्थापनारीत्या ३६ अयं भङ्गः सप्तप्रदेशिकस्यैव नतु षट्प्रदेशिकस्य स्कन्धस्येति भावः, 'नो चरमे य अचरमाई अवत्तत्व्वयाई य २२' नो वा 'चरमश्राचरमौ चावक्तव्यौ च' इति व्यपदिश्यते, वक्ष्यमाण सप्तत्रिंशस्थापनारीत्या ३७ अयं भङ्गः सप्तप्रदेशिकस्यैव नो षट्प्रदेशिकस्येति, 'सिय चरमाई च अचरमे च अवत्तव्यए य २३' षट्प्रदेशिशिकः स्कन्धः स्यात् - कदाचित्, 'चरमौ चाचरमश्च अवक्तव्यश्च' इति व्यपदिश्यते, तथाहि यदा षट्प्रदेशिकः स्कन्धो हैं, एक 'अचरम' और मध्यवर्त्ती एक अवक्तव्य होता है । इनका समूह षटूप्रदेशी स्कंध 'चरम - अचरम - अवक्तव्य' कहा जा सकता है। यह वीसवां भंग आगे कही जाने वाली पैंतीसवीं स्थापना के अनुसार सप्तप्रदेशी स्कंध में ही घटित होता है, षट्प्रदेशी स्कंध में नहीं । षट्प्रदेशी स्कंध 'चरम - अचरमौ अवक्तव्य' भी नहीं कहा जा सकता, यह भंग भी आगे कही जाने वाली छत्तीसवीं स्थापना के अनुसार सप्तप्रदेशी स्कंध में ही बन सकता है, षट्प्रदेशी स्कंध में नहीं' 'चरम - अचरमौ - अवक्तव्यौ' भी षद्मदेशी स्कंध नहीं कहा जा सकता । यह भंग आगे कही जाने वाली सेंतीसवीं स्थापना के अनुसार अवगाढ अष्टप्रदेशी भंग में ही संगत हो सकता है, षट्प्रदेशी में नहीं । षटूप्रदेशी स्कंध कथंचित् 'चरमौ - अचरम - अवक्तव्य' कहा जा सकता है। वह इस प्रकार जब कोई षट्पदेशी स्कंध आगे कही जाने वाली अडतीसवीं स्थापना के अनु
अने मध्यवर्ती अवक्तव्य थाय छे. तेभनो समूह षट् प्रदेशी सुध 'चरम - अचरम अवक्तव्य हेवाय छे.
षट्प्रदेशी अन्ध 'चरम अचरम अवक्तव्यौ' नथी उडी शाता, या वीसभा लौंग આવનારી પાંત્રીસમી સ્થાપનાના અનુસાર સપ્ત પ્રદેશી સ્કન્ધમાં જ ઘટિત થાય છે. તૂં प्रदेशी स्तुंधभां नहीं षट्पदेशी २४६ चरम - अचरमौ - अवक्तव्य पशु नथी उही शमता, भा ભંગપણ આગળ કહેવાશે તે છત્રીસમી સ્થાપનાના અનુસાર સતપ્રદેશી સ્કન્ધમાં જ બની શકે छे. षट् अहेशी स्४न्ध नहीं चरम - अचरमौ - अवक्तव्यौ' ना षट् प्रदेशी अन्ध नथी उही शाता. આ ભંગ આગળ કહેવાતી સાડત્રીસમી સ્થાપના અનુસાર અવગાઢ અષ્ટ પ્રદેશી ભંગમાં ४ संगत थई शड़े छे षट्रप्रदेशीभां नहीं षट्प्रदेदेशी २४न्ध थथित् चरम - अचरम - अवक्तव्य કહી શકાય છે. તે આ પ્રકારે જ્યારે કાઇ ષટ્ પ્રદેશી સ્કન્ધ આગળ કહેવાતી આડત્રીસમી
प्र० २१
श्री प्रज्ञापना सूत्र : 3