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________________ १६० प्रज्ञापनासूत्रे द्वौ उतरितनौ परमाणू चरमः, द्वौ चाधस्तनौ परमाणू चरम इति चरमी, द्वौ चावक्तव्यौ इति तत्समुदायात्मक पदसदेशिकस्कन्धोऽपि 'चरमौ चावक्तव्यों च' इति व्यपदिश्यते, किन्तु'नो अचरमे य अवत्तव्यए य १५' षट्प्रदेशिकः स्कन्धो नो 'अचरमश्वावक्तव्यश्च' इति व्यपदिश्यते प्रागुक्तयुक्तेः, 'नो अचरमे य अवत्तव्ययाई य १६ नो 'अचरमश्चावक्तव्यानि च इति व्यपदिश्यते, 'नो अवरमाई य अवत्तव्वए य १७' नो अचरमाणि चावक्तव्यश्च' इति वा व्यपदिश्यते, 'नो अचरमाई च अवत्तव्वयाई य १८' नो वा 'अचरमाणि चावक्तव्यानि च' इति व्यपदिश्यते, परन्तु 'सिय चरमे य अचरमे य अवत्तव्वए य १९' षटप्रदेशिक: स्कन्धः स्यात्-कदाचित् , 'चरमश्वाचरमश्वावक्तव्यश्च' इति व्यपदिश्यते तथाहि यदा षट्प्रदे. शिकः स्कन्धो वक्ष्यमाणचतुस्त्रिंशस्थापनारीत्या३४ एकपरिक्षेपेण विश्रेणिस्थैकाधिकम् षट्स्वाकाशप्रदेशेषु अवगाहते तदा एकवेष्ट काश्चत्वारः परमाणवः प्रागुक्तयुक्तरेकश्वरमः, एकोऽचरमो मध्यवर्ती एकोऽवक्तव्यः इति तत्समुदायात्मक षट्प्रदेशिकः स्कन्धोऽपि 'चरमचालाते हैं, नीचे के दोनों परमाणु भी 'चरम' कहलाते हैं। यों दोनों चरम मिल. कर 'चरमौ' कहलाए और दो 'अवक्तव्यौ हैं । इन सबका समुदायरूप षट्प्रदेशी स्कंध भी 'चरमौ-अवक्तव्यो' कहा जाता हैं । षट्प्रदेशी स्कंध पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार 'अचरम-अवक्तव्य' नहीं कहा जा सकता, 'अचरम-अवक्तव्यानि' भी नहीं कहा जा सकता, 'अचरमाणिअवक्तव्य' भी नहीं कहा जा सकता, 'अचरमाणि-अवक्तव्यानि' भी नहीं कहा जा सकता, किन्तु वह 'चरम-अचरम-अवक्तव्य' कहा जाता है। वह इस प्रकार-जब कोई षट्प्रदेशी स्कंध आगे कही जाने वाली चौतीसवीं स्थापना के अनुसार एक परिक्षेप से विश्रेणिस्थ एकाधिक छह आकाशप्रदेशों में अवगाहन करता है, तब एक को घेरने वाले चार परमाणु पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार 'चरम' છે, અને એક પરમાણુ બન્નેની ઊપર વિશ્રેણીમાં રહે છે. ત્યારે ઉપરના બે પરમાણુ 'चरम,' उवाय छ, नायना भन्ने ५२मा ५५ 'चरम' हेवाय छे. थे भन्ने परम भगीन 'चरमौ' वाया मन मे २०१४तव्यो छे. अपाना समुहाय ३५ षट् अशी २४.५ ५ 'चरमौ, अवक्तव्यौ ४३१य छे.. षट्शी २४.५ पूर्व युतिना अनुसार 'अचरम-अवक्तव्य' नयी ४:l siता 'अचरमअवक्तव्यानि ५ नथी ही शता, 'अचरमाणि अवक्तव्य पY नयी वात, 'अचरमाणि अवक्तव्यानि' ५ नयी ४डी शstai, ५ ते 'चरम-अचरम अवक्तव्य' उपाय छे. ते ) પ્રકારે-જ્યારે કેઈ ષ પ્રદેશી સ્કન્ય આગળ કહેવાશે તે ચેતરીસમી સ્થાપનાના અનુસાર એક પરિક્ષેપથી વિશ્રેણિસ્થ એકાધિક છ આકાશ પ્રદેશમાં અવગાહન કરે છે. ત્યારે ने घरवाणा या२ ५२म॥२ पूरित तिना अनुसार 'चरम' छे, मे, 'अचरम' श्री. प्रशान। सूत्र : 3
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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